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________________ ऐसा मान लेते हैं कि हमने भगवान् केवली का स्तवन बन्दन कर लिया। किन्तु जिस प्रकार नगर का वर्णन कर देने से राजा का वर्णन नहीं हो जाता, वैसे ही देह के गुणों की स्तुति कर देने से केवली के गुणों की स्तुति नहीं हो जाती इणमण्णं जीवादी देह पोल नितु मुणी मदि दो बंदियो मए केवली भवं ॥२८॥ हु संयुदो रम्भ वणिज हण वि रण्णो वण्णणा कदा होदि । देह गुणो ण केवलि पुणा बुवा होति ॥ २०॥ जो इन्द्रियों को जीतकर आत्मा (स्वयम् ) को ज्ञान-स्वभाव मानता है, वह जितेन्द्रिय कहलाता है। इसी प्रकार क्षीणमोह, जितमोह व्यक्ति आत्मा से भिन्न सारे भावों का प्रत्याख्यान करता चलता है। ज्ञानी जन आत्म-भिन्न सारे भावों का इसी प्रकार परित्याग कर देता है जैसे कोई पुरुष परद्रव्य का परित्याग करता है। तब उसकी यह भावना दृढ़ हो जाती है कि मैं एक, शुद्ध, दर्शन और ज्ञान स्वरूप और सदा अरूपी हूं। अपने अतिरिक्त परमाणुमात्र भी अन्य कुछ मेरा नहीं है महमेवको दो इंसगणाण मइओ सदावी । fa अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमित्तं वि ॥ ३८ ॥ 1 कुछ लोग राग, द्वेष आदि (अवसानं) कुछ इच्छादि के तीव्र, मन्द आदि अनुभाग को कुछ नोकर्म (अकामिक पुगल) को कुछ जीव और कर्म दोनों के युग्म को जीव बतलाते हैं। वस्तुतः ये सब और अन्य अष्टविध कर्म पुद्गलमय हैं जो पच्यमान होकर दुःख के जनक होते हैं। जैसे सेना के प्रयाण करने पर लोग बोलते हैं—देखो ! राजा जा रहा है। जबकि सारी सेना राजा नहीं होती, राजा केवल एक होता है ऐसे ही अध्यवसानादि अन्य भावों ( राग, द्वेष, इच्छा, प्रयत्न आदि) को देखकर लोग उन्हें ही जीव मान बैठते हैं। व्यावहारिक सुविधा की दृष्टि से ऐसे प्रयोग ठीक हो सकते हैं किन्तु वे परमार्थ- सत्य नहीं होते । वस्तुतः जीव का न कोई वर्ण है, न गन्ध, न रस, न स्पर्श और न राग, द्वेष, मोह, कर्म, प्रत्यय, वर्ग, वर्गणा या स्पर्धक (अणु, अणुक्रिया और अणुसंघात ) ही । योग, बन्ध, उदय, मार्गणा, स्थिति, संक्लेश, विशुद्धि, संयम, लब्धि, जैविक स्थानों एवं गुण स्थानों से पृथक् जीव अरस, अरूप, अगन्ध, अव्यक्त, अशब्द, अनुमानागम्य, अनिर्दिष्ट संस्थान ( किसी विशेष शरीराकार से मुक्त) और केवल चेतनागुणमय है अरसमरूवमगंधं अव्यत्तं चेदणा गुणमसद्धं । जाण अतिगम्यहणं जीवमणिहि संठाणं ॥ उपर्युक्त नकारात्मक विशेषणों से कुन्दकुन्द ने अपने समय में प्रचलित विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का भी निराकरण किया है। वह रागद्वेषादि प्रवृत्तियों के साथ जीव का सम्बन्ध क्षीरोदकवत् मानते हैं । क्षीर में मिले जल को भी लोग भ्रमवश क्षीर समझ लेते हैं, क्योंकि वह क्षीर ही दिखता है। किसी घर में डाका पड़ा सुनकर लोग कह उठते हैं कि अमुक घर लुट गया; जबकि परमार्थतः घर नहीं, उसका मालिक लूटा गया होता है। व्यवहार में ऐसे प्रयोग उपचार ( लक्षणा) जन्य होते हैं। जीव के विषय में भी ऐसा ही होता है यद्यपि जीव इन सबसे अलग उपयोगगुणाधिक्यवान् (दर्शन-जान वारियम) - एदेहिय सम्बन्धो जहेब बोरोग्यं मुदस्यो। णय हुंति तस्स ताणि दु उवओग गुणाधियो जम्हा ॥५७ व ५८ ॥ 1 यहां तक कुन्दकुन्द और शंकर के मार्ग में अन्तर नहीं है । प्राणी (जीव ) एक, दो, तीन, चार और पांच इन्द्रियों वाले होते हैं। इनमें कुछ सूक्ष्म, कुछ बेर के आकार के कुछ कम विकसित और कुछ पूर्ण विकसित (अपर्याप्त होते हैं इनके देह को, जो कर्म का परिणाम होता है. व्यवहार में जीव कह दिया जाता है। जीव इनसे भिन्न है। उपयोग या शुद्ध चेतन जीव अनादिकाल से मोह (अविया) में पड़ा हुआ तीन परिणामों (विकारों) को भोग रहा है। ये हैं मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरतिभाव (८९) । आत्मा जिस-जिस भाव या परिणाम को उत्पन्न करता है, उसका वह कर्त्ता होता है। उसके कारण पुद्गल द्रव्य स्वयं ही उसमें कर्म की उत्पत्ति करता है जिससे जीव कर्म से संपृक्त बनता है जं कुणदि भावामादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । कम्मत परिणमदे तहि सर्व पोग्गलं दध्वं ॥ ६९ ।। Jain Education International वस्तुतः वह ज्ञानमय जीव कर्मों का करने वाला नहीं होता सो गाणमओ जीवो कम्माणमकारगो होदि ॥६३॥ वह घट, पट आदि समस्त द्रव्यों का उत्पादक है ही नहीं। ये सारे द्रव्य योग और उपयोग ( जीव से सम्बद्ध शारीरिक हाथ-पांव आदि और बौद्धिक क्रियाओं) के संयोग से उत्पन्न होते हैं। अतः योग और उपयोग इन सबके निमित्त कर्ता है। जीव तो निमित्त कर्त्ता भी नहीं है । व्यवहार में जीव और उससे संबद्ध शरीरादि में भेद न करके लोग जीव को निमित्त कर्ता कह देते हैं जैन दर्शन मीमांसा For Private & Personal Use Only १४७ www.jainelibrary.org
SR No.210182
Book TitleAcharya kundkund aur Unka Darshanik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudayal Agnihotri
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size828 KB
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