________________
३ / कृतियोंकी समीक्षाएँ : १३
वे उस समयके विशिष्ट विद्वानाचार्य थे, जिनके चरणोंमें बैठकर अनन्तवीर्यने शिक्षण प्राप्त किया होगा। एक बात यह भी प्रकट होती है कि इन अनन्तवीर्यके पूर्व या समसमयमें अनन्तवीर्य नामके दूसरे भी विद्वान होंगे, जिनसे व्यावृत्त करनेके लिए ये अपनेको 'रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्य बतलाते हैं ।
अनन्तवीर्यने जो ग्रन्थ रचे हैं वे व्याख्या ग्रन्थ हैं। सम्भव है इन्होंने मौलिक ग्रंथ भी रचा हो, जो आज उपलब्ध नहीं है। व्याख्या ग्रन्थ उनके निम्न दो हैं-(१) प्रमाणसंग्रहभाष्य और (२) सिद्धिविनिश्चयटीका । प्रमाणसंग्रहभाष्य अनुपलब्ध है, केवल इसके सिद्धिविनिश्चयटीकामें अनेक जगह उल्लेख आये हैं। इससे मालम होता है कि वह महत्त्वपूर्ण और एक विशाल व्याख्या ग्रन्थ है । सिद्धिविनिश्चयटीका प्रस्तुत है, जिसका परिचय यहाँ अंकित है ।
सिद्धिविनिश्चयटीकाकी उपलब्धिका दिलचस्प और दुःखपूर्ण इतिहास | परिचय श्रद्धेय इतिहासविद् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने 'अनेकान्त' वर्ष १, किरण ३ में 'पुरानी बातोंकी खोज' शीर्षक लेखमें दिया है, जिसमें उन्होंने बताया है कि यह टीका एक श्वेताम्बर जैनशास्त्र भण्डारमें सुरक्षित थी, वहाँसे यह प्राप्त हुई। जिनदास गणि महत्तरने 'निशीथचूणि और श्रीचन्द्रसूरिने 'जीतकल्पचूणि' में सिद्धिविनिश्चयको दर्शन प्रभावक शास्त्र बतलाया है। इससे अकलंकके 'सिद्धि विनिश्चय' की गरिमा और माहात्म्य प्रकट होता है।
अनन्तवीर्यने मंगलाचरणके बाद टीका आरम्भ करते हुए अकलंकके वचनों को अति दुर्लभ निरूपित किया है
अकलंकवचः काले कलौ न कलयाऽपि यत् ।
नृषु लभ्यं क्वचिल्लब्ध्वा तत्रैवास्तु मतिर्मम ॥२॥ 'अकलंकके वचनोंकी एक कला / अंश भी मनुष्यों को अलभ्य है । कहीं प्राप्त हो जाये तो मेरी बुद्धि उसीमें लीन रहे।
इसके आगे एक अन्य पद्य द्वारा अकलंकके वाङ्मयको सद्रत्नाकर-समुद्र बतलाया है और उसके सूक्त-रत्नोंको अनेकों द्वारा यथेच्छ ग्रहण किये जानेपर उसके कम न होनेपर भी उसे सद्रत्नाकर ही प्रकट किया है। वह सुन्दर और प्रिय पद्य इस प्रकार है
अकलंक वचोम्भोधेः सूक्त-रक्तानि यद्यपि ।
गृह्यन्ते बहुभिः स्वैरं सद्रत्नाकर एव सः।। ४ ।। __ इसम अकलंकने बारह (१२) प्रस्ताव रखे हैं। धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकमें परिच्छेद नाम चुना है और अकलंकने परिच्छेदार्थक 'प्रस्ताव' नाम दिया है। वे बारह प्रस्ताव निम्न प्रकार है-१. प्रत्यक्षसिद्धि, २. सविकल्पक सिद्धि, ३. प्रमाणान्तरसिद्धि, ४. जीवसिद्धि, ५. जल्पसिद्धि. ६. हेतुलक्षण सिद्धि, ७. शास्त्रसिद्धि, ८. सर्वज्ञसिद्धि, ९. शब्दसिद्धि, १०, अर्थनयसिद्धि, ११. शब्दनयसिद्धि और १२. निरक्षेपसिद्धि । प्रस्तावोंमें विषयका वर्णन उनके नामोंसे ही अवगत हो जाता है ।
टीकामें मूलभाग उस प्रकारसे अन्तर्निहित नहीं है जिस प्रकार प्रभाचन्द्रके न्यायकुमुदचन्द्रमें लघीयस्त्रय और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति है। किन्तु कारिका और उसकी वत्तिके आदि अक्षरोंके प्रतीक मात्र दिये गये हैं। इससे यह जानना बड़ा कठिन है कि यह मूल कारिका-भाग है और यह उसकी वृत्ति है। टीकासे अलग मलकारिका भाग तथा वृत्तिभाग अन्यत्र उपलब्ध नहीं, जिसकी सहायतासे उसे टोका परसे अलग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org