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१२: डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ
राजने 'न्यायविनिश्चयविवरण' अथवा 'न्यायविनिश्चयालंकार' नामक वैदृष्यपूर्ण बृहद् व्याख्या लिखी है । उसकी स्वोपज्ञवृत्ति को उन्होंने छोड़ दिया है, इसीसे उन्होंने सन्धि वाक्योंमें 'कारिका विवरण' शब्दका प्रयोग किया है। फलतः वह आज अनुपलब्ध है। 'सिद्धिविनिश्चय' और प्रमाणसंग्रह तथा इनकी स्वोपज्ञवृत्तियोंपर अनन्तवीर्य ने अपनी महान् व्याख्याएँ-सिद्धिवि निश्चयटीका और प्रमाणसंग्रहभाष्य लिखी है। अकलंकके इन व्याख्याकारोंमें अनन्तवीर्यका उन्नत स्थान है और संभवतः वे ही अकलंकके आद्य व्याख्याकार है। यदि विद्यानन्द अनन्तवीर्यसे पूर्ववर्ती है तो वे अकलंकके प्रथम व्याख्याकार है, क्योंकि उनकी अष्टशतीपर अष्टसहस्री लिखनेवाले विद्यानन्द हैं। यद्यपि विद्यानन्दने अष्टसहस्री अष्टशतीपर न लिखकर देवागम ( आतमीमांसा ) पर लिखी है। किन्तु अष्टशती लिखी जानेके बाद अष्टसहस्री लिखी गयी है क्योंकि विद्यानन्दने अष्टशती को अष्टसहस्रीमें ऐसा आवेष्टित किया है, मानो वह अष्टसहस्रीका ही अपना आत्मीय अंश है।
अनन्तवीर्यने प्रभाचन्द और वादिराजकी तरह दार्शनिक एवं ताकिक चर्चाओं को न देकर अकलंक के पदोंके साकांक्ष हादको ही पूर्णतः व्यक्त करनेका प्रयत्न किया है और वे अपने इस प्रयत्नमें सफल भी हए हैं। वे अकलकके प्रत्येक पद, वाक्यादिका समासादि द्वारा योग्यतापूर्ण सुस्पष्ट व्याख्यान करते हैं। कहींकहीं दो-दो, तीन-तीन व्याख्यान करते हुए पाये जाते हैं। अनन्तवीर्यको हम प्रज्ञाकरकी तरह परपक्षके निराकरणमें मुख्य पाते हैं, स्वपक्ष साधन तो उनके लिए उतना ही है, जितना मूलसे ध्वनित होता है । अकलंककी चोट यदि धर्मकीर्तिपर है तो अनन्तवीर्यकी उनके प्रधान टीकाकार प्रज्ञाकर पर है। अपनी इस टीकामें उन्होंने प्रज्ञाकरका बीसियों जगह नामोल्लेख करके उनके मतका कदर्थन किया है। उनके प्रमाणवार्तिकालंकारके तो अनेक स्थलोंको उद्धत करके उसका सर्वाधिक समालोचन किया है। हमारा अनुमान है कि अनन्तवीर्यने जो प्रमाणसंग्रहालंकार/प्रमाणसंग्रहभाष्य लिखा था, जिसका उल्लेख स्वयं उन्होंने सिद्धिविनिश्चयालंकारमें किया है और जो आज अनुपलब्ध है वह प्रज्ञाकरके प्रमाणवातिकालंकारके जवाबमें ही लिखा होगा। दोनोंका नाम साम्य भी यही प्रकट करता है। कुछ भी हो, यह अवश्य है कि अनन्तवीर्यने सबसे ज्यादा प्रज्ञाकरका ही खण्डन किया है, जैसे अकलंकने धर्मकीर्तिका। अतः जैन साहित्यमें अकलंकके टीकाकारोंमें अनन्तवीर्यका वही गौरवपूर्ण स्थान है जो बौद्ध न्याय-साहित्यमें धर्मकीर्तिके टीकाकारोंमें प्रधान टीकाकार प्रज्ञाकरको प्राप्त है और इसलिए अनन्तवीर्यको जैन साहित्यका प्रज्ञाकर कहा जा सकता है।
इनका व्यक्तित्व और वैदुष्य इसीसे जाना जा सकता है कि उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र, वादिराज जैसे टीकाकारोंने उनके प्रति अपनी अनन्य श्रद्धा और सम्मान प्रकट किया है तथा अकलंक पदोंका उन्हें तलस्पर्शी एवं मर्मज्ञ व्याख्याकार कहा है। अकलंककी न्यायकृतियोंमें वस्तुतः सबसे अधिक क्लिष्ट और दुर्बोध प्रमाणमंग्रह और सिद्धिविनिश्चय हैं। अनन्तवीर्य ने इनपर ही अपनी व्याख्याएँ लिखी हैं । यद्यपि उनके सामने अकलंकके न्यायविनिश्चय और लघीयस्त्रय ग्रन्थ भी थे और जो अपेक्षाकृत उनसे सरल है। किन्तु उनपर व्याख्याएँ नहीं लिखीं। इससे अनन्तवीर्यकी योग्यता, बुद्धि वैभव और अदम्य साहस प्रतीत होते हैं । इसीसे ये अनन्तवीर्य 'बृहदनन्तवीर्य' कहे जाते है। अनन्तवीर्यकी गुरु परम्परा
अनन्तवीर्यने अपनी इस टीकामें प्रत्येक प्रस्तावके अन्तमें केवल अपने साक्षात् गुरुका नाम 'रविभद्र' दिया है और अपनेको उनका पादोपजीवी-शिष्य बतलाया है। ये रविभद्र कौन थे? इस सम्बन्धमें न टीकाकारने कुछ परिचय दिया और न अन्य साधनोंसे कुछ अवगत होता है। इतना ही ज्ञात होता है कि
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