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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है वह दार्शनिक मन का ज्ञान : साधना का प्रथम चरण दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते निर्ग्रन्थ साधक के लक्षणों का विवेचन करते हुए सूत्रकार कहता हए तो यहाँ तक कहा गया है कि "संसय परिआगओ संसारे परित्रये है-जो मणं परिजाणई से निग्गंथे जे मणे अपावए-२।१५।४५। (११५।१)" अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। जो मन को जानता है और उसे अपवित्र नहीं होने देता है, वही निर्ग्रन्थ आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति है, इस प्रकार निम्रन्थ श्रमण की साधना का प्रथम चरण है मन को को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक जानना और दूसरा चरण है मन को अपवित्र नहीं होन देना। मन की पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही शुद्धि भी स्वयं मनोवृत्तियों के ज्ञान पर निर्भर है। मन को जानने का एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। ज्ञान के विकास मतलब है अन्दर झाँककर अपनी मनोवृत्तियों को पहचानना, मन की की यात्रा सन्देह (जिज्ञासा) से ही प्रारम्भ होती है, क्योंकि संशय के ग्रन्थियों को खोजना, यही साधना का प्रथम चरण है। रोग का ज्ञान स्थान पर श्रद्धा आ गयी तो विचार का द्वार ही बन्द हो जाएगा, वहाँ और उसका निदान उससे छुटकारा पाने के लिये आवश्यक है। आधुनिक ज्ञान की प्रगति कैसे होगी? संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता मनोविज्ञान की मनोविश्लेषण विधि में भी मलाशयों से मुक्त होने है। विचार या चिन्तन से विवेक जागृत होता है, ज्ञान के नये आयाम के लिये उनको जानना आवश्यक माना गया है। अन्तर्दर्शन और प्रकट होने लगते हैं। आचारांग ज्ञान की विकास यात्रा के मूल में सन्देह मनोविश्लेषण आधुनिक मनोविज्ञान की महत्त्वपूर्ण विधियाँ हैं, आचारांग को स्वीकार करके चलता है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो यात्रा सन्देह में उन्हें निर्ग्रन्थ साधना का प्रथम चरण बताया गया है। वस्तुत: आचारांग से प्रारम्भ होती है, अन्त में श्रद्धा तक पहुँच जाती है। अपना समाधान की साधना अप्रमत्तता की साधना है और यह अप्रमत्तता अपनी पाने पर सन्देह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत चित्तवृत्तियों के प्रति सतत् जागरूकता है। चित्तवृत्तियों का दर्शन समाधान-रहित अन्धश्रद्धा की परिणति सन्देह में होगी। जो सन्देह से सम्यग्दर्शन है, स्वस्वभाव में रमना है। आधुनिक मनोविज्ञान जिस प्रकार चलेगा अन्त में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुँच जाएगा, जबकि जो मानसिक स्वास्थ्य के लिये मनोग्रन्थियों को तोड़ने की बात कहता श्रद्धा से प्रारम्भ करेगा वह या तो आगे कोई प्रगति ही नहीं करेगा है उसी प्रकार जैन-दर्शन भी आत्मशुद्धि के लिए ग्रंथि-भेद की बात या फिर उसकी श्रद्धा खण्डित होकर सन्देह में परिणत हो जायगी।। कहता है। ग्रन्थि, ग्रन्थि-भेद और निम्रन्थ शब्दों के प्रयोग स्वयं आचारांग यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय।
की मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं। वस्तुत: ग्रन्थियों से मुक्ति ही
साधना का लक्ष्य है-गंथेहिं विवत्तेहिं आउकालस्स पारए-१८।८।११। आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण
जो ग्रन्थियों से रहित है वही निर्ग्रन्थ है। निर्ग्रन्थ होने का अर्थ है, आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार राग-द्वेष या आसक्ति रूपी गाँठ का खुल जाना। जीवन में अन्दर और ने स्पष्ट रूप से कहा है-जे आया से वित्राया, जे विनाया से आया। बाहर से एकरूप हो जाना, मुखौटों की जिन्दगी से दूर हो जाना, जेण वियाणइ से आया। तं पडुच्च पडिसंखाये-१५।५। इस प्रकार क्योंकि ग्रन्थि का निर्माण होता है रागभाव से, आसक्ति से, मायाचार वह ज्ञान को आत्म-स्वभाव या आत्म-स्वरूप बताता है। जहाँ आधुनिक या मुखौटों की जिन्दगी से। इस प्रकार आचारांग एक मनोवैज्ञानिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण सत्य को प्रस्तुत करता हैं। आचारांग के अनुसार बन्धन और मुक्ति बताता है, वहाँ आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान-लक्षण पर बल देता के तत्त्व बाहरी नहीं, आन्तरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों मे अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु --'बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव-" १।५।२। बन्धन और मोक्ष अनुभूति (वेदना) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा हमारे अध्यवसायों किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बन्धन के हैं, अत: ज्ञान ही प्रथम लक्षण सिद्ध होता है। वैसे आचारांगसूत्र ही वास्तविक बन्धन है। वे गाँठे जिन्होंने हमें बाँध रखा है, वे हमारे में तथा परवर्ती जैन-ग्रन्थों में भी मनोविज्ञान सम्मत इन तीनों लक्षणों मन की ही गाँठे हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि-"कामेसु गिद्धा को देखा जा सकता है, फिर भी आचारांगसूत्र का आत्मा के विज्ञाता निचयं करेंति-" १।३।२। कामभागों के प्रति आसक्ति से ही बन्धन स्वरूप पर बल देने का एक विशिष्ट मनोवैज्ञानिक कारण है, क्योंकि की सृष्टि होती है। वह गाँठ जो हमें बाँधती है, आसक्ति की गाँठ आत्मा की अनुभूत्यात्मक एवं संकल्पात्मक अवस्था में पूर्णत: समभाव है, ममत्व की गाँठ है, अज्ञान की गाँठ है। इस आसक्ति से प्रत्युत्पत्र या समाधि की उपलब्धि सम्भवं नहीं है, जब तक सुख-दुःखात्मक हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही वेदना की अनुभूति है या संकल्प-विकल्प का चक्र चल रहा है, आत्मा जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। पर भाव में स्थित होता है, चित्त समाधि नहीं रहती है। आत्मा का एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरएस्वरूप या स्वभाव धर्म तो समता है, जो केवल उसके ज्ञाता-द्रष्टा १।१।२। आचारांग के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, रूप में स्वरूपत: उपलब्ध होता है। वेदक और कर्ता रूप में वह स्वरूपतः वही समस्त पीड़ाओं की जननी है (आतुरा परितावेंति-११।२।) उपलब्ध नहीं है।
यहाँ हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक
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