Book Title: Acharang Sutra Ek Vishleshan Author(s): Publisher: Z_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf View full book textPage 1
________________ आचारांगसूत्र एक विश्लेषण : आचारांगसूत्र जैन आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है, यह अर्धमागधी में लिखा गया है, किन्तु इसके प्रथम और द्वितीय श्रुतस्कत्थ की भाषा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न है जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध में अर्धमागधी का प्राचीनतम रूप परिलक्षित होता है वहाँ द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से परवर्ती और विकसित लगता है। यद्यपि आचारांग मूलतः अर्धमागधी प्राकृत का ग्रन्थ है किन्तु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है फिर भी प्रश्रुतस्कन्ध में यह प्रभाव नगण्य ही है। मेरी दृष्टि में इस प्रभाव का कारण मूलतः एक लम्बी अवधि तक इसका मौखिक बना रहना है। यह भी सम्भव है कि जो अंश स्पष्ट रूप से और सम्पूर्ण रूप से महाराष्ट्री के हैं वे बाद में जोड़े गये हो। यद्यपि इस सम्बन्ध में निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। फिर भी भाषा सम्बन्धी इस प्रभाव का कारण उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से ही है। प्रथम श्रुतस्कन्ध मूलतः औपनिषदिक सूत्रात्मक शैली में लिखा गया है जबकि दूसरा मुख्य रूप से विवरणात्मक और पद्यरूप में है। प्रथम श्रुतस्कन्ध की जो भाषा है यह गद्य और पद्य दोनों से भिन्न है। यद्यपि प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी पद्म कुछ आ गये हैं फिर भी उसकी सूत्रात्मक शैली दूसरे श्रुतस्कन्ध की शैली से भिन्न है। हमें तो ऐसा लगता है कि प्राकृत-ग्रन्थों की रचना में सर्वप्रथम आचारांग की प्रथम श्रुतस्कन्ध की सूत्रात्मक शैली का विकास हुआ, फिर सहज पद्य लिखे जाने लगे, फिर उसके बाद विकसित स्तर के गद्य लिखे गये। भाषा और शैली के विकास की दृष्टि से आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में लगभग तीन शताब्दियों का अन्तर तो अवश्य रहा होगा। आचारांग में आचार के सिद्धान्तों और नियमों के लिये जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिये अद्भुत आकर्षण का विषय है। आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण-आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूँकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बन्ध में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिये यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएँ एवं सम्भावनाएँ क्या है? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना सम्भव नहीं है हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है। Jain Education International परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है अस्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए। के अ आसी के वा इओ चुओ इ पेच्छा भविस्सामि ।। १/१/१/३ इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरान्त किस रूप में होऊँगा? यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्व प्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वबोध या स्वरूप बोध पर आधारित है मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं इसीलिये सूत्रकार ने कहा है कि जो इस " अस्तित्व" या स्व-सत्ता को जान लेता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है (सोहं से आयाबाई लोगाबाई कम्मवाई किरियाबाई १।१।१।४-५) व्यक्ति के लिये मूलभूत और सारभूत तत्व उसका अपना अस्तित्व ही है, और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियों मानी गयी हैं। अस्तित्व सम्बन्धी जिज्ञासा मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न आचारांगसूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का १८३] सत्य की खोज में सन्देह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है। सम्भवतया ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म के आरम्भिक काल में श्रद्धा का तत्त्व इतना प्रमुख नहीं था। आचारांग में " णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं पत्राणमंताणं इह मुत्तिमग्र्ग" (१।६।१) कहकर समाधि एवं प्रज्ञा के रूप में जिस मुक्ति-मार्ग का विधान हुआ है, वह स्वयं इस बात का संकेत करता है कि उस समय तक दर्शन या सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा का सूचक नहीं था। यद्यपि आचारांग में दंसण और सम्मतदंसी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में कहीं भी इसका प्रयोग श्रद्धा के अर्थ में नहीं हुआ है। अधिक से अधिक ये शब्द "दृष्टिकोण" या "सिद्धान्त" के अर्थ में प्रयुक्त हुये हैं, जैसे- एवं पासगस्स दंसणं ( १ | ३ | ४) । वस्तुतः मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी धार्मिक आन्दोलन में श्रद्धा का तत्त्व उसके परवर्ती युग में जबकि वह कुछ विचारों एवं मान्यताओं से आबद्ध हो जाता है, अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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