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आचारांगसूत्र : एक विश्लेषण
आचारांगसूत्र जैन-आगम साहित्य का एक प्राचीनतम ग्रन्थ है, परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व सम्बन्धी मानवीय यह अर्धमागधी में लिखा गया है, किन्तु इसके प्रथम और द्वितीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न हैश्रुतस्कन्ध की भाषा एक दूसरे से पूर्णतया भिन्न है। जहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध अस्थि मे आया उववाइए, नरिथ मे आया उववाइए। में अर्धमागधी का प्राचीनतम रूप परिलक्षित होता है वहाँ द्वितीय के अ आसी के वाइओ चुओइपेच्चा भविस्सामि।। श्रुतस्कन्ध प्रथम श्रुतस्कन्ध की अपेक्षा भाषा की दृष्टि से परवर्ती और
१।१।१।३ विकसित लगता है। यद्यपि आचारांग मूलत: अर्धमागधी प्राकृत का इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन ग्रन्थ है किन्तु उस पर महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव आ गया है फिर के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के भी प्रथम श्रुतस्कन्ध में यह प्रभाव नगण्य ही है। मेरी दृष्टि में इस उपरान्त किस रूप में होऊँगा? यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय प्रभाव का कारण मूलत: एक लम्बी अवधि तक इसका मौखिक बना जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्व रहना है। यह भी सम्भव है कि जो अंश स्पष्ट रूप से और सम्पूर्ण प्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता रूप से महाराष्ट्री के हैं वे बाद में जोड़े गये हों। यद्यपि इस सम्बन्ध का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वमें निश्चयात्मक रूप से कुछ भी कह पाना कठिन है। फिर भी भाषा बोध या स्वरूप-बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन-दृष्टि क्या सम्बन्धी इस प्रभाव का कारण उपर्युक्त दोनों विकल्पों में से ही है। और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध मूलत: औपनिषदिक सूत्रात्मक शैली में लिखा गया अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण है जबकि दूसरा मुख्य रूप से विवरणात्मक और पद्यरूप में है। प्रथम क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और अधर्म की सारी मान्यताएँ श्रुतस्कन्ध की जो भाषा है वह गद्य और पद्य दोनों से भिन्न है। यद्यपि अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं। इसीलिये सूत्रकार ने कहा प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी पद्य कुछ आ गये हैं फिर भी उसकी सूत्रात्मक है कि जो इस “अस्तित्व' या स्व-सत्ता को जान लेता है वही शैली दूसरे श्रुतस्कन्ध की शैली से भिन्न है। हमें तो ऐसा लगता है आत्मवादी है, लोकवादी है, वार्मवादी है और क्रियावादी है। (सोहं कि प्राकृत ग्रन्थों की रचना में सर्वप्रथम आचारांग की प्रथम श्रुतस्कन्ध से आयावाई लोगावाई कम्मवाई किरियावाई-१।११४-५) व्यक्ति की सूत्रात्मक शैली का विकास हुआ, फिर सहज पद्य लिखे जाने लगे, के लिये मूलभूत और सारभूत तत्त्व उसका अपना अस्तित्व ही है, फिर उसके बाद विकसित स्तर के गद्य लिखे गये। भाषा और शैली और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने के विकास की दृष्टि से आचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों में लगभग तीन अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान शताब्दियों का अन्तर तो अवश्य रहा होगा। आचारांग में आचार के में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियाँ मानी सिद्धान्तों और नियमों के लिये जिस मनोवैज्ञानिक आधारभूमि और गयी हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि को अपनाया गया है, वह तुलनात्मक अध्ययन के लिये अद्भुत आकर्षण का विषय है।
सत्य की खोज में सन्देह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण-आचार का सैद्धान्तिक यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर एवं व्यावहारिक पक्ष है।चूँकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है। सम्भवतया रूप से जड़ा हआ है, अत: यह स्वाभाविक है कि आचार के सम्बन्ध ऐसा प्रतीत होता है कि जैनधर्म के आरम्भिक काल में श्रद्धा का तत्त्व में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे इतना प्रमख नहीं था। आचारांग में "णिक्खित्तदंडाणं समाहियाणं नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहिये-यह बहुत कुछ इस बात पन्नाणमंताणं इह मत्तिमग्गं' (१।६।१) कहकर समाधि एवं प्रज्ञा के पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी रूप में जिस मुक्ति मार्ग का विधान हुआ है, वह स्वयं इस बात का क्षमताएं एवं सम्भावनाएं क्या हैं? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त संकेत करता है कि उस समय तक दर्शन या सम्यग्दर्शन शब्द श्रद्धा का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना सम्भव का सूचक नहीं था। यद्यपि आचारांग में दंसण और सम्मत्तदंसी शब्दों नहीं है। हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु मेरी दृष्टि में कहीं भी इसका प्रयोग नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक श्रद्धा के अर्थ में नहीं हआ है। अधिक से अधिक ये शब्द "दृष्टिकोण" एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है।
या "सिद्धान्त" के अर्थ में प्रयुक्त हुये हैं, जैसे-एयं पासगस्स दंसणं
(१।३।४)। वस्तुत: मनोवैज्ञानिक दृष्टि से किसी भी धार्मिक आन्दोलन अस्तित्व सम्बन्धी जिज्ञासा : मानवीय बुन्दि का प्रथम प्रश्न में श्रद्धा का तत्त्व उसके परवर्ती युग में जबकि वह कुछ विचारों एवं
आचारांगसूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का मान्यताओं से आबद्ध हो जाता है, अधिक महत्त्वपूर्ण बन जाता है।
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