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के० आर० चन्द्रा
३. प्राचीन रूप अस्वीकृत, भले ही प्राचीन प्रत में मिलता हो ।
अस्वीकृत - ( जीवा अणेगे )
स्वीकृत - जीवा अणेगा
(श्री जम्बूविजयजी के अनुसार संदी० में मिलने वाला शुद्ध पाठ 'अणेगे' लिया जाना चाहिए ) [ इससे यह सिद्ध होता है कि अर्वाचीन प्रतों में भी प्राचीन रूप मिलते हैं । ]
४. अर्वाचीन प्रत और चूर्णि में प्राचीन रूप मिलते हुए भी उसे छोड़ दिया गया है ।
अस्वीकृत - ( अखेत्तन्ने )
स्वीकृत - अखेयन्ने
५. प्राचीन प्रत एवं चूर्णि में अर्वाचीन रूप प्राप्त होते हुए भी उसे ही लिया गया है । स्वीकृत - घामीणे, समणुजाणमीणे
अस्वीकृत - ( घायमाणे ), ( समणुजाणमाणे )
६. चूर्णि एवं प्राचीन प्रत का पाठ छोड़ दिया गया है ।
अस्वीकृत - ( अस्सायं ) स्वीकृत - असायं
७. चूर्णि एवं अर्वाचीन प्रत का पाठ छोड़ दिया गया है । अस्वीकृत - ( अवियाण), (पिञ्छाए ) स्वीकृत - अविजाणए, पिच्छाए
८. मात्र चूर्णि में प्राचीन रूप हो तो छोड़ दिया गया है ।
अस्वीकृत - ( अकरणीयं ), ( अनितियं ), ( सोतपण्णाणेहि ) स्वीकृत - अकरणिज्जं, अनिच्चियं, सोतपण्णाणेहि
अस्वीकृत - ( परिहायमाणहि )
स्वीकृत - परिहायमाणेहिं
९.
चूर्ण की प्रतों में गलत रूप भी मिलते हैं । पच्चई ( पवच्चइ ) ( शुनिंग )
मंता (मत्ता ) ( जम्बू, शुनिंग )
हिसिस्सु (हिंसिसु ) ( जम्बू०, शुनिंग )
१०. चूर्णि की प्रतों में अर्वाचीन रूप भी मिलते हैं ।
आरंभमीणा ( आरंभमाणा ), परिन्नाए ( परिन्नाय ) aar (अविजाए ), पिञ्छाए ( पिच्छाए ) लोयं ( लोगं ); [ जम्बू०, संस्करण ]
[ इससे यह सिद्ध होता है कि चूर्णि में सदैव प्राचीन और शुद्ध रूप ही मिलते हों, ऐसा नियम नहीं है । 1
११. विविध सम्पादकों के लिये एक ही पाठ उपलब्ध सामग्री एवं विविध प्रतों के अनुसार प्राचीन या अर्वाचीन हो सकता है ।
१. श्री जम्बूविजयजी ने 'अणितियं' पाठ स्वीकृत किया है।
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