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'आचारांग' और कबीर-दर्शन
. डॉ. निजामउद्दीन
'आचारांग' जैनागम का प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें आचार के ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य (ब्रह्मचर्य) का विशद निरूपण किया गया है। आचार-दर्शन का मूलाधार समता है यानी सभी प्राणियों से एकात्मानुभव करना। सुख-दुःख, जीवन-मरण, मान अपमान में समत्व का अनुभव करना। कबीर निर्गुण भक्तिशाखा के ज्ञानमार्गी कवियों में सिरमौर हैं। उनके काव्य का पर्यवेक्षण करने पर विदित होता है कि उन्होंने आचार पर, जीवन-व्यवहार पर अधिक बल दिया है। उनके दार्शनिक सिद्धांतों को जब देखते हैं तो उनमें और आचारंग-प्रतिपादित सिद्धान्तों तथा जीवन मूल्यों में अत्यधिक साम्य परिलक्षित होता है।
कबीर के दार्शनिक आध्यात्मिक विचारों को तीन भागों में विभाजित कर सकते हैं - १. परमतत्व २. जीवतत्व ३. मायातत्व
परमतत्व के विषय में कबीर का दृष्टिकोण निराकार तथा साकार से परे है, वह न द्वैत और न अद्वैत, वह न निर्गुण है न सगुण। ब्रह्म का स्वरूप अनिर्वचनीय है। रहस्यवादी शैली में कबीर का अनिर्वचनीय ब्रह्म सबके लिए बोधगम्य नहीं, वह अगम है जीव उसी परमतत्व का अंश है, अतः अजर-अमर है। लेकिन परमात्मा या परमतत्व की स्थिति को 'आचारांग' के अनुसार अभिव्यंजित किया है। 'आचारांग' में परमात्मा का अभिनिरूपण अग्रांकित है -
१. सव्वे सरा णियटृति (१२३) सब स्वर लौट आते हैं -परमात्मा शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है।
२. तक्का जत्थ ण विज्जइ (१२४) वहाँ कोई तर्क नहीं है वह तर्क गम्य नहीं है।
३. मई तत्थ ण गाहिया (१२५) वह मति द्वारा ग्राह्य नहीं है।
४. ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे (१२६) वह अकेला, शरीर रहित और ज्ञाता है। ५. से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले।
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