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वह न दीर्घ है, न हस्व है, न वृत है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, और न परिमण्डल है।
६. ण सुब्भिगंधे, ण दुरभिगंधे। (१२९) वह न सुगंध है और न दुर्गन्ध है।
७. ण कक्कड़े, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए ण सीए, ण उण्हे, ण गिद्धे, ण दुक्खे
वह न कर्कश है, न मृदु है, न गुरु है, न लघु है, न शीत है, न उष्ण है, न स्निग्ध है और न रूक्ष है।
८. अरूवी सत्ता (१३८) वह अमूर्त अस्तित्व है।
९. से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण फासे, इच्चेताव। (१६०) वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है, न स्पर्श है, इतना ही है: अब कबीर वाणी में इस परमात्मा का, परमतत्व का प्रतिबिम्ब निहारिए -
(१) कोई ध्यावै निराकार को, कोई ध्यावै साकार। ___ वह तो इन दोऊ ते न्यारा, जानै जाननहारा॥ (२) अवगत की गति क्या कहूं जाकर गाँव न नावं।
गुन-बिहीन का पेखिये, काकर धरिये नाव॥ (३) ज्यों तिल माहीं तेल है, ज्यों चकमक में आगि।
तेरा साई तुल्झ में, जागि सके तो जागि॥ (४) भारी कहूं तो वहु डरूं, हल्का कहूं तो झूठ। - मैं का जानों राम • नैना कबहू न दीठ॥
(५) तेरा साई तुज्झ में, ज्यों पहुपन में बास॥ जैनदर्शन में आत्मा और शरीर को भिन्न माना है, यहीं 'भेद -विज्ञान' है लेकिन आत्मा और परमात्मा की अभिन्नता दर्शाई गई है यानी आत्मा अपने राग-द्वेष रहित, विकार रहित स्वरूप के कारण परमात्मा का अभिधान धारण कर लेती है। कबीर ने आत्मा परमात्मा की अभिन्नता बार-बार व्यक्त की है।
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
। फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ को ज्ञानी॥ माया का व्यवधान आने पर जीव परमात्मा से पृथक रहता है, जहाँ माया का आवरण हटा, बझं आत्मा अपने शुद्ध, ज्ञानमय रूप में व्यक्त हो जाती है। माया का दार्शनिक रूप जैनदर्शन में कर्म, काम, क्रोध, परिग्रह, लोभ, घृणा, राग-द्वेष आदि कहा जायेगा। “आचारांग" में कहा गया है -
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