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________________ - चतीन्द्रसूरि स्मारक गत्य - जैन आगम एवं साहित्य अतः इतना निश्चित है कि प्रलंबसूरि वि.सं. १३३४ के पहले हुए। हैं। हो सकता है कि ये चूर्णिकार सिद्धसेन के समकालीन हों आचार्य ने तीन मत उद्धृत किए हैं- १. केवलज्ञान और अथवा उनसे भी पहले हुए हों। केवलदर्शन का यौगपद्य, २. केवलज्ञान और केवलदर्शन का दशवैकालिकचूर्णिकार अगस्त्यसिंह कोटिगणीय वज्रस्वामी। क्रमिकत्व, ३. केवल ज्ञान और केवलदर्शन का अभेद। एतद्विषयक की शाखा के एक स्थविर हैं। इनके गुरु का नाम ऋषिगुप्त है। " का गाथाएँ इस प्रकार हैं--- इनके समय आदि के विषय में प्रकाश डालने वाली कोई सामग्री केई भणंति जुगवं जाणइ पासइ य केवली णियमा। उपलब्ध नहीं है। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि इनकी अण्णे एगंतरियं इच्छंति सुकवदेसेणं।।1।। चूर्णि अन्य चूर्णियों से विशेष प्राचीन नहीं है। इसमें तत्त्वार्थ सूत्र अण्णे ण चेव वीसुं दंसणमिच्छंति जिणवरिंदस्स। आदि के संस्कृत-उद्धरण भी हैं। चूर्णि के प्रारंभ में ही सम्यग्दर्शनज्ञान। जं चिय केवलणाणं तं चिय से दंसणं बेंति॥2॥ (तत्त्वा. अ. १, सू. १) सूत्र उद्धृत किया गया है। शैली आदि इन तीनों मतों के समर्थन के रूप में भी कुछ गाथाएँ दी की दृष्टि से चूर्णि सरल है। गई हैं। आचार्य ने केवलज्ञान और केवलदर्शन के क्रमभावित्व आगे हम कुछ महत्त्वपूर्ण चूर्णियों के संबंध में प्रकाश डालेंगे। का समर्थन किया है। एतद्विषयक विस्तृत चर्चा विशेषावश्यकभाष्य में देखनी चाहिए।१६ नन्दीचूर्णि श्रुतनिश्रित, अश्रुतनिश्रित आदि भेदों के साथ ___ यही चूर्णि१५ मूल सूत्रानुसारी है तथा मुख्यतया प्राकृत में आभिनिबोधिज्ञान का सविस्तर विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने लिखी गई है। इसमें यत्र-तत्र संस्कृत का प्रयोग है अवश्य श्रुतज्ञान का अति विस्तृत व्याख्यान किया है। इस व्याख्यान में किन्तु वह नहीं के बराबर है। इसकी व्याख्यानशैली संक्षिप्त एवं संज्ञीश्रुत, असंज्ञीश्रुत, सम्यक्श्रुत, मिथ्याश्रुत, सादिश्रुत, सारग्राही है। इसमें सर्वप्रथम जिन और वीरस्तुति की व्याख्या की अनादिश्रुत, गमिकश्रुत, अगमिकश्रुत, अंगप्रविष्ट श्रुत, अंगबाह्यश्रुत, गई है, तदन्तर संघस्तुति की। मूल गाथाओं का अनुसरण करते उत्कालिकश्रुत, कालिकश्रुत आदि श्रुत के विविध भेदों का समावेश हुए आचार्य ने तीर्थंकरों, गणधरों और स्थविरों की नामावली किया गया है। द्वादशांग की आराधना के फल की ओर संकेत भी दी है। इसके बाद तीन प्रकार की पर्षद की ओर संकेत करते करते हुए आचार्य ने निम्न गाथा में अपना परिचय देकर ग्रन्थ हए ज्ञानचर्चा प्रारंभ की है। जैनागमों में प्रसिद्ध आभिनिबोधिक समाप्त किया है-- (मति), श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल इन पांच प्रकार के णिरेणगगमत्तणहसदा जिया, पसुपतिसंखगजट्टिताकुला। ज्ञानों का स्वरूप-वर्णन करने के बाद आचार्य ने प्रत्यक्ष-परोक्ष कमट्ठिता धीमतचिंतियक्खरा, फुडं कहेयंतभिघाणकत्तुणो।।1।। की स्वरूप-चर्चा की है। केवलज्ञान की चर्चा करते हुए चूर्णिकार नन्दीचूर्णि (प्रा.टे.सो.) पृ. ८३ ने पंद्रह प्रकार के सिद्धों का भी वर्णन किया है- १. तीर्थसिद्ध, ___ अनुयोगद्वारचूर्णि २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४. अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध, ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध, ७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. यह चर्णि१७ मल सत्र का अनसरण करते हए मख्यतया स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. __ प्राकृत में लिखी गई है। इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग हुआ स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहलिंगसिद्ध, १४. है। प्रारंभ में मंगल के प्रसंग से भावनंदी का स्वरूप बताते हुए एकासद्ध, १५. अनेकसिद्ध। ये अनन्तसिद्धकेवलज्ञान के भेद 'णाणं पंचविधं पण्णत्तं' इस प्रकार का सत्र उदधत किया गया है हैं। इसी प्रकार केवलज्ञान के परम्परसिद्धकेवलज्ञान आदि और कहा गया है कि इस सूत्र का जिस प्रकार नंदीचूर्णि में अनेक भेदोपभेद हैं। इन सबका मूल सूत्रकार ने स्वयं ही व्याख्यान किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी व्याख्यान कर लेना निर्देश किया है। चाहिए।१८ इस कथन से स्पष्ट है कि नंदीचूर्णि अनुयोगद्वारचूर्णि से पहले लिखी गई है। प्रस्तुत चूर्णि में आवश्यक, तंदलवैचारिक bridro drawwaritariwarowariranorariwariwomariwari-२६ Padminitariridrionitoria-irioritdoorsariwaridwar Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210168
Book TitleAgamik Churniya aur Churnikar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year1999
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size2 MB
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