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यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य निर्युक्तिगाथाओं की तो और भी विचित्र स्थिति है। नियुक्ति की ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो हरिभद्र की टीका में तो हैं किन्तु चूर्णियों में नहीं मिलतीं। हाँ, इनमें कुछ गाथाएँ ऐसी अवश्य हैं जिनका चूर्णियों में अर्थ अथवा आशय दे दिया गया है किन्तु जिन्हें गाथाओं के रूप में उद्धृत नहीं किया गया है। दूसरी बात यह है कि चूर्णियों में अधिकांश गाथाएँ पूरी की पूरी नहीं दी जाती हैं, अपितु प्रारंभ में कुछ शब्द उद्धृत कर केवल उनका निर्देश दिया जाता है। कुछ ही गाथाएँ ऐसी होती हैं जो पूरी उद्धृत की जाती हैं। हम यहाँ हरिभद्र की टीका में उपलब्ध कुछ नियुक्ति गाथाएँ उद्धृत कर यह दिखाने का प्रयत्न करेंगे कि उमें से कौन सी दोनों चूर्णियों में पूरी की पूरी हैं, कौन सी अपूर्ण अर्थात् संक्षिप्तरूप में है, किनका अर्थ रूप से निर्देश किया गया है और किनका बिल्कुल उल्लेख नहीं है।
सिद्धिगमुवगाणं कम्मविसुद्घाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसकालियणिज्जुत्तिं कित्तइस्सामि ॥1॥
यह गाथा न तो जिनदासगणि की चूर्णि में है, न अगस्त्यसिंहकृत चूर्णि में। इनमें इसका अर्थ अथवा संक्षिप्त उल्लेख भी नहीं है ।
अपुहुत्तपुहुत्ताइं निद्दसिउं एत्थ होइ अहिगारो । चरणकरणाणुजोगेण तस्स दारा इमे होंति ॥4॥
इस गाथा का अर्थ तो दोनों चूर्णियों में है किन्तु पूरी अथवा अपूर्ण गाथा एक भी नहीं है।
णामं ठवणा दविए माउयपयसंगहेक्कए चेव । पज्जव भावे यतहा सत्तेए एक्कगा होंति ॥ 8 ॥
यह गाथा दोनों चूणियों में पूरी की पूरी उद्धृत की गई है। यह इन चूर्णियों की प्रथम नियुक्ति गाथा है जो हारिभद्रीय टीका की आठवीं निर्युक्ति गाथा है
दव्वे अद्ध अहाउअ उवक्कमे देसकालकाले य तह य पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भावेणं ॥ 1 ॥
यह गाथा भी दोनों चूर्णियों में इसी प्रकार उपलब्ध है-आयप्पवायपुव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नत्ती । कम्मप्पवायपुव्वा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ।। 16 ।। यह गाथा दोनों चूर्णियों में संक्षिप्त रूप से निर्दिष्ट है, पूर्ण उद्धृत नहीं।
रूप में
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वोत्तर अधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥43 ॥
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यह गाथा अर्थरूप से तो दोनों ही चूर्णियों में हैं, किन्तु गाथारूप से अधूरी या पूरी एक में भी नहीं है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि दोनों चूर्णिकारों और टीकाकार हरिभद्र ने नियुक्ति - गाथाएँ समान रूप से उद्धृत नहीं की है। दोनों चूर्णिकारों में एतद्विषयक काफी समानता हैं, जबकि हरिभद्रसूरि इन दोनों से इस विषय में बहुत भिन्न हैं। इस विषय पर अधिक प्रकाश डालने के लिए विशेष अनुशीलन की आवश्यकता है।
निशाथ - विशेषचूर्णि
जिनदासगणिकृत प्रस्तुत चूर्णि" मूल सूत्र, निर्युक्ति एवं भाष्यगाथाओं के विवेचन के रूप में है। इसकी भाषा अल्प संस्कृत - मिश्रित प्राकृत है। प्रारंभ में पीठिका है जिसमें निशीथ की भूमिका के रूप में तत्संबद्ध आवश्यक विषयों का व्याख्यान किया गया है। सर्वप्रथम चूर्णिकार ने अरिहंतादि को नमस्कार किया है तथा निशीथचूला के व्याख्यान का संबंध बताया है-नमिऊणऽरहंताणं सिद्धाण य कम्मचक्कमुक्काणं । सयणिसिनेहविमुक्काण सव्वसाहूण भावेण ॥1 ॥ सविसेसायरजुत्तं, काउ पणामं च अत्थदायिस्प । पज्जुण्णखमासमणस्स, रण करणाणुपालस्स॥2॥ एवं कयप्पणामो, पकप्पणामस्स विवरणं वन्ने । पुव्वायरियकयं चिय, अहं पि तं चेव उ विसेसा ॥3॥ भणिया विमुत्तिचूला, अहुणावसरो णिसीह चूलाए। को संबंधो तस्सा, भण्णइ इणमो णिसामेहि ॥4॥
इन गाथाओं में अरिहंत, सिद्ध और साधुओं को सामान्य रूप से नमस्कार किया गया है तथा प्रद्युम्न क्षमाश्रमण को अर्थदाता के रूप में विशेष नमस्कार किया गया है। निशीथ का दूसरा नाम प्रकल्प भी बताया गया है।
प्रारंभ में चूलाओं का विवेचन करते हुए चूर्णिकार ने बताया है कि चूला छह प्रकार की होती है। उसका वर्णन जिस प्रकार दशवैकालिक में किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए ? ६६ इससे सिद्ध होता है कि निशीथचूर्णि दशवैकालिकचूर्णि के बाद लिखी गई है। इसके बाद आचार का स्वरूप बताते हुए आचार्य ने आचारादि पाँच वस्तुओं की ओर
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