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आगमों की प्राचीनतम पद्यात्मक व्याख्याएँ निर्युक्तियों और भाष्यों के रूप में प्रसिद्ध हैं। वे सब प्राकृत में हैं। जैनाचार्य इन पद्यात्मक व्याख्याओं से ही संतुष्ट होने वाले न थे। उन्हें उसी स्तर की गद्यात्मक व्याख्याओं की भी आवश्यकता प्रतीत हुई। इस आवश्यकता की पूर्ति के रूप में जैन आगमों पर प्राकृत अथवा संस्कृतिमिश्रित प्राकृत में जो व्याख्याएँ लिखी गई हैं, वे चूर्णियों के रूप में प्रसिद्ध हैं। आगमेतर साहित्य पर भी कुछ चूर्णियाँ लिखी गई हैं, किन्तु वे आगमों की चूर्णियों की तुलना में बहुत कम हैं। उदाहरण के लिए कर्मप्रकृति, शतक आदि की चूर्णियाँ उपलब्ध हैं।
आगमिक चूर्णियाँ और चूर्णिकार
चूर्णियाँ -
निम्नांकित आगम ग्रंथों पर आचार्यों ने चूर्णियाँ लिखी हैं१. आचारांग, २. सूतकृत्रांग, ३. व्याख्याप्रज्ञप्ति ( भगवती ), ४. जीवाभिगम, ५. निशीथ, ६. महानिशीथ, ७. व्यवहार, ८. दशाश्रुतस्कन्ध, ९. बृहत्कल्प, १०. पंचकल्प, ११. ओधनिर्युक्ति, १२. जीतकल्प, १३. उत्तराध्ययन, १४. आवश्यक, १५. दशवैकालिक, १६. नंदी, १७. अनुयोगद्वार, १८. जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति । निशीथ और जीतकल्प पर दो-दो चूर्णियाँ लिखी गईं, किन्तु वर्तमान में एक-एक ही उपलब्ध है। अनुयोगद्वार, बृहत्कल्प एवं दशवैकालिक पर भी दो-दो चूर्णियाँ हैं।
चूर्णियों की रचना का क्या क्रम है, इस विषय में निश्चितरूप से कुछ नहीं कहा जा सकता। चूर्णियों में उल्लिखित एक-दूसरे के नाम के आधार पर क्रम निर्धारण का प्रयत्न किया जा सकता है। श्री आनन्दसागर सूरि के मत से जिनदासगणिकृत निम्नलिखित चूर्णियों का रचनाक्रम इस प्रकार है--नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारकचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि और व्याख्याप्रज्ञप्तिचूर्णि । १
आवश्यकचूर्ण में ओघनियुक्तिचूर्णि का उल्लेख है। इससे प्रतीत होता है कि ओधनिर्युक्तिचूर्णि आवश्यकचूर्णि से पूर्व लिखी गई है। दशवैकालिचूर्णि में आवश्यकचूर्णि का नामोल्लेख
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डॉ. मोहनलाल मेहता...
है। इससे यह सिद्ध होता है कि आवश्यकचूर्णि दशवैकालिक चूर्णि से पूर्व की रचना है। उत्तराध्ययनचूर्णि में दशवैकालिकचूर्णि का निर्देश है जिससे प्रकट होता है कि दशवैकालिकचूर्णि उत्तराध्ययनचूर्णि के पहले लिखी गई है । अनुयोगद्वारचूर्णि में नंदीचूर्णि का उल्लेख किया गया है। ससे सिद्ध होता है कि है। इन उल्लेखों नंदीचूर्णि की रचना अनुयोगद्वारचूर्णि के पूर्व को देखते हुए श्री आनन्दसागर सूरि के मत का समर्थन करना अनुचित नहीं है। हाँ, उपर्युक्त रचनाक्रम में अनुयोगद्वारचूर्णि के बाद तथा आवश्यकचूर्णि के पहले ओघनिर्युक्तिचूर्णि का भी समावेश कर लेना चाहिए, क्योंकि आवश्यकचूर्णि में ओधनियुक्तिचूर्णिका उल्लेख है, जो आवश्यकचूर्णि के पूर्व की रचना है।
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भाषा की दृष्टि से नन्दी चूर्णि मुख्यतया प्राकृत में है । इसमें संस्कृत का बहुत कम प्रयोग किया गया है। अनुयोगद्वारचूर्णि भी मुख्य रूप से प्राकृत में ही है, जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक और गद्यांश उद्धृत किए गए हैं। जिनदासकृत दशवैकालिकचूर्णि की भाषा मुख्यतया प्राकृत है, जबकि अगस्त्यसिंहकृत दशवैकालिकचूर्णि प्राकृत में ही है। उत्तराध्यनचूर्णि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है। इसमें अनेक स्थानों पर संस्कृत के श्लोक उद्धृत किए गए हैं। आचारांगचूर्णि प्राकृत-प्रधान है, जिसमें यत्र-तत्र संस्कृत के श्लोक भी उद्धृत किए गए हैं । सूत्रकृतांगचूर्णि की भाषा एवं शैली आचारांगचूर्णि के ही समान है। इसमें संस्कृत का प्रयोग अन्य चूर्णियों की अपेक्षा अधिक मात्रा में हुआ है। जीतकल्पचूर्णि में प्रारंभ से अंत तक प्राकृत का ही प्रयोग है। इसमें जितने उद्धरण है, वे भी प्राकृत ग्रंथों के हैं । इस दृष्टि से यह चूर्णि अन्य चूर्णियों में विलक्षण है। निशीथविशेषचूर्णि अल्प संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है । दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि प्रधानतया प्राकृत में है। बृहत्कल्पचूर्णि संस्कृतमिश्रित प्राकृत में है।
चूर्णिकार
चूर्णिकार के रूप में मुख्यतया जिनदासगणि महत्तर का नाम प्रसिद्ध है। इन्होंने वस्तुतः कितनी चूर्णियाँ लिखी है, इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। परंपरा से निम्नांकित
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