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मुनि कन्हैयालाल 'कमल' : आगम साहित्य का पर्यालोचन: ८११ की इस श्रद्धा का केन्द्रबिंदु है आगमों की प्रामाणिकता. अतएव जैन और जैनेतर दार्शनिकों ने आगम को सर्वोपरि प्रमाण माना है.
विभिन्न परम्पराओं में आगम वैदिक परम्परा वेदों को आगम मानती है. वेद शब्द का अर्थ ज्ञान है, ज्ञान स्वयं प्रकाशमान है, ज्ञान की सत्ता अखण्ड है, अतएव ज्ञान का निर्माण किसी पुरुषविशेष के द्वारा नहीं हो सकता. ईश्वर भी ज्ञान का कर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो स्वयं ज्ञानस्वरूप है. अभिप्राय यह है कि ज्ञान साधन है, साध्य नहीं अपितु स्वयं सिद्ध है. इसलिए वेद अपौरुषेय हैं. जैन दार्शनिकों ने वेदों की अपौरुषेयता और नित्यता का निषेध किया है वह उसके शाब्दिक रूप को लेकर ही समझना चाहिए. शब्दरचना कोई अनादि नहीं हो सकती है.
जैन आगमों के समान वेदों के कुछ प्रमुख विषयविभाग हैं, जिन्हें जैन भाषा में अनुयोग विभाग कहा जा सकता है, यथा -ऋग्वेद ज्ञानकाण्ड, यजुर्वेद कर्मकाण्ड, सामवेद-उपासनाकाण्ड और अथर्ववेद विज्ञानकाण्ड है.
'अंगानि चतुरो वेदा' 'चारों वेद अंग हैं. इनके उपांग शतपथ ब्राह्मण आदि ब्राह्मण ग्रंथ हैं. जैनागमों के समान वैदिक परम्परा में भी अंगोपांग माने गये हैं. भगवती शतक २ उद्देशक १ में स्कंदक परिव्राजक के वर्णन में लिखा है कि 'चउन्हें वेदाणं संगो गाणं, स्कंदक परिव्राजक सांगोपांग चारों वेदों का ज्ञाता था. अंग उपांग में साहित्य को विभाजित करने की पद्धति इतनी पुरानी है कि उसका इतिहास प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. श्रुतपुरुष की तरह वेदपुरुष की कल्पना भी अति प्राचीन है. यथा
छन्दः पादौ तु वेदस्य हरती कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चतुः, निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते । शिक्षा घ्राणं च वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम् । मांगी महीयते ।
- पाणिनीय शिक्षा
बौद्ध परम्परा त्रिपिटकों को आगम मानती है. पिटक पेटी को कहते हैं. तीन पिटक अर्थात् तीन पेटियां. विनयपिटक [आचारशास्त्र]], सुत्तपिटक [बुद्ध के उपदेश और अभिधम्मपिटक (तत्वज्ञान] पिटक साहित्य विशाल साहित्य है. बिहार राज्य के पाली प्रकाशनमण्डल ने देवनागरी लिपि में तीनों पिटकों का ४० जिल्दों में प्रकाशन किया है. अंतिम बुद्ध गौतम बुद्ध ने और उनके पूर्ववर्ती अनेक बुद्धों ने जो कहा है उसी का इन पिटकों में संकलन है.
बुद्ध ने
कपिलवस्तु नाम का नगर बुद्ध की जन्मभूमि है. उस युग में वहां की जनभाषा पाली रही होगी. उस भाषा में उपदेश दिया और त्रिपिटकों की रचना भी उसी भाषा में हुई है.
जैनपरम्परा के आगम द्वादशांग गणिपिटक [आचार्य को ज्ञानमंजुषा ] हैं. यह गणिपिटक ध्रुव, नित्य एवं शाश्वत है. इसकी नित्यता शब्दों की अपेक्षा से नहीं अपितु अर्थ [भाव ] की अपेक्षा से है और वह भी महाविदेश क्षेत्र की अपेक्षा से है. जो नित्य होता है वह अपौरुषेय है. शाश्वत सत्य कभी पौरुषेय नहीं होता है. पुनः तीर्थंकर होते हैं और उस तिरोहित तथ्य को व्यक्त करते हैं. यह क्रम अनादि काल से चल रहा है एवं अनन्तकाल तक चलता रहेगा.
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आगमों की अधिकतम संख्या
भगवान् ऋषभदेव के समय में अंगोपांगादि के अतिरिक्त चौरासी हजार प्रकीर्णक थे. भगवान् अजितनाथ से भगवान् पार्श्वनाथ पर्यन्त प्रत्येक तीर्थंकर के समय में संख्येय हजार प्रकीर्णक थे. भगवान् महावीर के समय में १४ हजार प्रकीर्णक थे.
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श्री देवधिगणी क्षमाश्रमण के समय में आगमों की अधिकतर संख्या ८४ रह गई थी, वर्तमान में केवल ४५ आगम उपलब्ध हैं, शेष सभी आगम विलुप्त हो गये हैं. नन्दी सूत्र में ८४ आगमों के नाम इस प्रकार है :
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