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आगम-साहित्य का अनुशीलन
(डा. श्री सुव्रतमुनिजी शास्त्री)
आगम शब्द की निष्पत्ति :- आ उपसर्ग पूर्वक 'गम्' धातु से आने के अर्थ में 'घ' प्रत्यय लगाने पर 'आगम' शब्द बनता है। जिसके अनेक अर्थ बनते हैं। जैसा-जैसा प्रसंग होता है वैसा-वैसा अर्थ आगम से ग्रहण कर लिया जाता है। उदाहरणार्थ लताओं पर नये पत्तों का निकलना भी आगम कहलाता है। जैसे - “लतायां पूर्वलूनायां प्रसूनस्य आगम:” कृतः- उत्तर ०५/२०/ ऐसे ही व्याकरण में इडागमः आदि में शब्दरूपों में अक्षरों का आना भी आगम कहलाता है। परंतु प्रस्तुत प्रसंग में आगम का अर्थ है- परम्परागत धार्मिक सिद्धांत ग्रंथ।
पुरातन जैन आचार्यों ने आगम शब्द की अनेक विध व्याख्याएं की है। जैसे आगम्यन्ते मर्यादयाऽवबुद्धयन्तेऽर्थाः अनेनेत्यागमः। अर्थात् जिससे वस्तु तत्त्व का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है। इसी प्रकार
आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ (पदार्थ) ज्ञान आगम कहा जाता है। जिससे उचित दिशा व विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, उसे आगम या श्रुतज्ञान कहते हैं।
आगमों के कर्ताः- तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश करते हैं और गणधर उसे ग्रंथबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं।' अर्थात्मक ग्रंथ के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं। एतद् अर्थ ही आगमों में यत्रतत्र (तस्सण अयमढे पण्णत्ते) ऐसा पाठ प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार जैन आगमों को तीर्थकर प्रणीत कहा जाता है। यह भी ज्ञातव्य है कि जैन-आगमों की प्रामाणिकता केवल गणधर कृत होने से ही नहीं है अपितु उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वार्थ साक्षात्कारित्व के कारण है। जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येक बुद्ध निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं।
आगमों का विभाजन :- आचार्य देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने आगमों को अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य इन दो भागों में विभक्त किया है। अंग-प्रविष्ट और अंग बाह्य का विश्लेषण करते हुए जिन भद्रगणी क्षमाश्रमण ने तीन हेतु बतलाए हैं। अंग-प्रविष्ट वह श्रुत है(१) जो गणधरों के द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ होता है। (२) जो गणधरों के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थकर के द्वारा प्रतिपादित होता है। (३) जो शाश्वत सत्यों से सम्बन्धित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घ कालीन होता है।
एतदर्थ ही समवायांग में स्पष्ट कहा है - द्वादशांग भूत गणिपिटक भी नहीं था, ऐसा नहीं है, नहीं है, नहीं होगा ऐसा भी नहीं है। वह था, है, और होगा। वह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है,
अक्षय है, और नित्य है।
अंगबाह्य श्रुत : - अंगबाह्य श्रुत वह होता है :१ - जो स्थविर कृत होता है। २ - जो बिना प्रश्न किए तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता है।
_आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरातीय आचार्यों के द्वारा निर्मित
आगम अंग प्रतिपादित अर्थ के निकट डा. श्री सुव्रतमुनिजी शास्त्री
या अनुकूल होने के कारण अंगबाह्य कहलाते हैं।
स्थानकवासी परंपरा में ११ अंग, १२ उपांग और ४ मूल तथा १४ छेद अवं १ आवश्यक इस प्रकार कुल ३२ आगमों को प्रामाणिक माना जाता है।
आग ३ अंग-११
उपांग-१२ आचारांग
औपपातिक सूत्र कृतांग
राजप्रश्नीय स्थानांग
जीवाभिगम समवायांग
प्रज्ञापना भगवती
जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथांग
चन्द्र-प्रज्ञप्ति उपासकदशांग
सूर्य-प्रज्ञप्ति अंतकृतदशांग
कल्पिका अनुत्तरोपपातिक दशांग कल्पावतंसिका प्रश्नव्याकरण
पुष्पिका
पुष्पचूलिका विपाकसूत्र
वृष्णिदशा १. आवश्यक
चार मूल, १ - दशवैकालिक, २ - उत्तराध्ययन, ३ - अनुयोगद्वार, ४ - नन्दीसूत्र। चार छेद १ निशीथ, २ व्यवहार, ३ बृहक्कल्प, ४ दशाश्रुतस्कन्द। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में ४५ आगमों की प्रामाणिकता है। जिनमें पूर्वोक्त ३२ आगमों के अतिरिक्त १० प्रकीर्णक, महानिशीथ, जीतकल्प, और श्रावक आवश्यक। ये कुल मिलाकर ४५ आगम माने जाते हैं। इनके क्रम में विद्वान एक मत नहीं हैं। कछ विद्वान इनकी संख्या अधिक भी आंकते हैं।
अंगों में १२ वां अंग दृष्टिवाद को माना जाता है परन्तु वर्तमान में ऐसी धारणा पाई जाती है कि दृष्टिवाद मूलरूप में अनुपलब्ध है।
श्राम जयतसनसूरि आभनंदन यथावाचना
शिखा चढ़े अभिमान की, करे और उपहास । जयन्तसेन रहे सदा, उस जीवन में त्रास ॥
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