SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जाति देशसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमाः महाव्रतम् । इसे समझना आवश्यक है । जाति अवच्छिन्न अहिंसा का उदाहरण है मछुओं की मत्स्यगत हिंसा और अन्य जातिगत अहिंसा ( अर्थात् उनकी हिंसा यदि केवल आजीविकार्थ मत्स्यों तक सीमित रहे और अन्यत्र वे अहिंसक रहें तो यह जाति अवछिन्न अहिंसा होगी। इसी प्रकार देशावाच्छिन्न अहिंसा है "तीर्थ में हनन नहीं करूँगा इत्यादि । ” कालावच्छिन्न अहिंसा है चतुर्दशी या किसी पुण्य दिन में हनन नहीं करूँगा” इत्यादि । यह अहिंसा समयावाच्छिन्न भी हो सकती हैं जैसे "देव ब्राह्मण के लिए हिंसा करूँगा अन्य किसी प्रयोजन से नहीं । " समय का अर्थ कर्तव्य के लिए नियम भी हो सकता है। जैसे अर्जुन ने क्षत्रिय कर्तव्य की दृष्टि से युद्ध किया था । इस तरह जाति, देश, कालादि द्वारा अवच्छिन्न न होकर जो अहिंसा सर्वथा, सर्वदा, सर्वावस्था में पालन की जाती है, वही श्रेष्ठ है, तथा महाव्रत कहलाती है। योगी जन इसी का पालन करते हैं । जहाँ तक गृहस्थों का प्रश्न है, उनके लिए महाव्रत संभव न होने के कारण वे आंशिक रूप में, क्रम पूर्वक, अधिकाधिक कठोर व्रत स्वीकार कर अहिंसा का पालन करते हैं । जान बूझ कर किसी भी प्राणी की शरीर से हिंसा नहीं करूँगा और न ही करवाऊंगा केवल अनुमोदन की छूट रहती है । इस प्रकार का व्रत अणुव्रत कहलाता है । वस्तुतः इस प्रकार के अपवादयुक्त व्रत तो दुर्बल मानवों के लिए राहत प्रदान करने जैसे हैं एवं क्रमशः हिंसा वृत्ति को त्याग कर पूरी तरह अहिंसक बनाने की दिशा में प्रथम कदम मात्र हैं । जाति, देश, कालादि के भी अपवाद उपर्युक्त रीति से स्वीकार किए गए है । अहिंसा - साधना की समस्याएँ - जैसा कि प्रारंभ में कहा जा चुका है, अन्य यमों की तरह अहिंसा के भी दो रूप हैं; एक साध्य और एक साधन । साध्य के रूप में अहिंसा का अर्थ है सर्व प्राणियों में आत्मा का दर्शन अहिंसा परमो धर्मः Jain Education International जैन संस्कृति का आलोक करना, सत्य का अर्थ है; आत्मा ही एकमात्र सत्य है, जगत् मिथ्या है, इस सत्य में प्रतिष्ठित होना, ब्रह्मचर्य का अर्थ है सदा ब्रह्मस्वरूप में विचरण करना इत्यादि । लेकिन साधन के रूप में इन तीनों के कई स्तर हैं, एवं अन्य साधनों की तरह इनकी भी समस्याएँ हैं। पहली समस्या तो यह है कि सभी साधनों का लक्ष्य एक होते हुए भी सभी के लिए एक साधन संभव नहीं है । कोई सत्य को साधना के रूप में स्वीकार कर सकता है, कोई अहिंसा पर बल दे सकता है अथवा कोई ब्रह्मचर्य को लेकर आगे बढ़ सकता है। सभी साधन परस्पर सम्बन्धित अवश्य हैं लेकिन भिन्न-भिन्न साधक भिन्न-भिन्न साधनों पर बल देते हैं। यही नहीं, पात्र, देश और काल के अनुसार भी परिवर्तन होता है । उदाहरण के लिए जिस गरीब व्यक्ति को अपने परिवार के भरण पोषण के लिए रोजी रोटी के लिए कठोर परिश्रम करना पड़ रहा है जिसे अपने तथा अपने परिवार के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए संघर्षरत रहना पड़ रहा है उसके लिए अहिंसा परमोधर्म एवं चरम लक्ष्य होते हुए भी तात्कालिक साधन नहीं हो सकता। जिस देश को सदा बाहरी शत्रुओं के आक्रमण का भय बना रहता हो उसके लिए भी अहिंसा का संपूर्ण पालन सम्भव नहीं है | दुर्बल बलहीन व्यक्ति को अहिंसा का आदर्श और अधिक दुर्बल बना सकता है। क्षमा वीरस्य भूषणम् । अहिंसा उच्चतम या परमादर्श है, लेकिन समाज में कभी भी उच्चतम आदर्श का आचरण करने वाले विरले व्यक्ति ही होते हैं । व्यावहारिक स्तर पर दैनन्दिन जीवन के स्तर पर निरन्तर आदर्श को स्वीकार करना होता है अन्यथा सारे समाज का पतन होता है। सभी साधनों की दूसरी समस्या यह है कि साधन ही साध्य बन जाते हैं। उन पर इतना अधिक बल दिया जाने लगता है कि लोग लक्ष्य को भूल जाते हैं । यह दुराग्रह एवं कट्टरवादिता का रूप लेता है | अहिंसा के सम्बन्ध में भी यही बात है । अहिंसा के प्रति दुराग्रह वाले लोग चींटी, मच्छर, कीड़े-मकोड़े आदि को बचाने में ही For Private & Personal Use Only ३१ www.jainelibrary.org
SR No.210144
Book TitleAhimsa Parmo Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmeshanand Swami
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy