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________________ साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि स्थापित करने के लिए उपर्युक्त भावना करना अत्यन्त आवश्यक है । स्वामी विवेकानन्द ने कहा है : There is no justifiable killing and there is no righteous anger. अर्थात् हिंसा की पुष्टि और क्रोध की तुष्टि नहीं हो सकती । व्यावहारिक स्तर अहिंसा की साधना - जैसा कि कहा जा चुका है, पूर्ण अहिंसा एक उच्चतम आदर्श है जिसका पालन व्यावहारिक दैनन्दिन जीवन में लगभग असम्भव है । अतः न्यूनतम हिंसायुक्त जीवन यापन करना ही अहिंसा की साधना का व्यावहारिक रूप है । इस दृष्टि से हिंसा के चार प्रकार किये जा सकते हैं (१) संकल्पी (२) विरोधी (३) उद्योगी ( ४ ) आरंभी । संकल्पी - संकल्प पूर्वक, मानसिक उत्तेजना सहित तथा जान बूझकर दूसरे का अकल्याण करने के उद्देश्य से की गयी हिंसा संकल्पी कही जाती है । २. विरोधी - स्वयं तथा स्वयं से सम्बन्धित लोगों की निरीह, निरपराध की रक्षा के लिए जिस हिंसा को स्वीकार किया जाता है वह विरोधी हिंसा कहलाती है । धर्मयुद्ध इस अन्तर्गत आते हैं। ३. उद्योगी - खेतीबाडी, व्यवसायादि में अनिवार्य रूप से युक्त हिंसा को उद्योगी हिंसा कहा गया है । ४. आरंभी - जीवन निर्वाह के साथ जुड़ी हुई हिंसा, यथा मकान साफ करने, भोजन पकाने, कपड़े धोने आदि में होनेवाली हिंसा । संकल्पी हिंसा का त्याग तो सर्वदा सर्वथा किया ही जाना चाहिए। शेष तीन प्रकार की हिसाएं पूरी तरह से त्यागी नहीं जा सकतीं। उन्हें भी यथा संभव कम करने का प्रयत्न करना चाहिए। यह सदा ध्यान रखना चाहिए कि निरपराध और असम्बद्ध व्यक्ति या प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न पहुँचे । ३० Jain Education International अन्य यम-नियमों का अनुष्ठान - जैसा कि पहले कहा जा चुका है, विभिन्न यम नियमों में अहिंसा सर्व प्रथम एवं प्रमुख है तथा ये सारे यम नियम, अहिंसा की सिद्धि के लिए ही हैं । यह भी बताया जा चुका है कि असत्य, परिग्रह, चोरी तथा अब्रह्मचर्य प्रकारान्तर से हिंसा के ही रूप हैं । अतः इनका त्याग एवं सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य का पालन करना अहिंसा के ही रूप हैं । वस्तुतः समस्त आध्यात्मिक साधनाएँ अहिंसा के लक्ष्य की ओर ले जानेवाली ही हैं । एक सरल शान्त, पवित्र अनाडंबरयुक्त जीवन व्यतीत करना अहिंसक होने के लिए परमावश्यक है। विशेषकर आधुनिक काल में जब हमारे जीवन निर्वाह के लिए तथा सुख सुविधा आदि के लिए अन्य प्राणियों को कष्ट देना अवश्यंभावी हो गया है । अहिंसा का विध्यात्मक पक्ष - अहिंसा का अर्थ केवल किसी की हत्या न करना या कष्ट न पहुँचाना मात्र नहीं है उसका एक भाव रूप, विध्यात्मक पक्ष भी है । सभी पर दयालु भाव रखना तथा पर पीड़ा निवृत्ति भी अहिंसा के ही रूप हैं । अतः सेवा, दान आदि द्वारा दूसरों के दुःख दूर करने का प्रयत्न करना भी अहिंसा का ही प्रकार है । अहिंसा : एक व्रत के रूप में - जैन धर्म में अहिंसा को सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। जैन गृहस्थ एवं संन्यासी अनेक व्रतों का पालन करते हैं जिनमें अहिंसा व्रत सबसे महत्वपूर्ण है। संन्यासी, कृत, कारित और अनुमोदित, मन वचन एवं शरीर से की गई सभी हिंसा का पूरी तरह त्याग करता है । अर्थात् शरीर, मन या वाणी से न किसी की हिंसा करना या कष्ट पहुँचाना, न ऐसा करवाना और न किसी के द्वारा किए गए का अनुमोदन करना। जब इस प्रकार का आचार जाति, देश, काल और समय के द्वारा अनवच्छिन्न होता है, तब महाव्रत कहलाता है । For Private & Personal Use Only अहिंसा परमो धर्मः www.jainelibrary.org
SR No.210144
Book TitleAhimsa Parmo Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBrahmeshanand Swami
PublisherZ_Sumanmuni_Padmamaharshi_Granth_012027.pdf
Publication Year1999
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Five Geat Vows
File Size1 MB
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