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साधना का महायात्री : श्री सुमन मुनि
का विधान है। अतः व्यावहारिक, भौतिक स्तर पर पूर्ण ने सलाम किया और कहा कि क्या वे मांस लेंगे। सन्त ने अहिंसा असंभव है। जो साधक इस सत्य को समझ लेते कहा कि उन्हें मांस की आवश्यकता नहीं है। दुकानदार ने हैं। पूर्ण रूप से आत्मसात् कर लेते हैं, तथा स्वयं के प्रतिवाद करते हुए कहा, “जनाब, आपके शरीर में मांस अस्तित्व के लिए प्राणि हिंसा नहीं चाहते, वे जितना शीघ्र बिल्कुल नहीं है, आपको तो मांस की जरूरत है, क्योंकि ही, संसार बन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, जिससे पुनः मांस से ही मांस बनता है। सूफी सन्त ने क्षण भर रुक जन्म न लेना पड़े और न ही दूसरे प्राणियों की हिंसा करनी कर उत्तर दिया, "मेरी देह में जितना माँस है, उतना कब्र पड़े। वे भोग के स्थान पर योग का आश्रय लेते हैं | जो के कीड़ों के लिए काफी है" और वे आगे बढ़ गये। उन क्रमशः अल्प से अल्पतर हिंसा का मार्ग है। अहिंसा के सन्त के लिए स्वयं की देह कब्र के कीड़ों की देह से सन्दर्भ में योग का अर्थ है - न्यूनतम हिंसा का जीवन। अधिक मूल्यवान् नहीं रह गयी थी।
स्वयं की आत्मा के समान ही समस्त प्राणियों की श्रीरामकृष्ण ने भी "सर्वात्मैकत्व" के अनुभव के आत्मा है, इस सत्य का साक्षात्कार करना ही जीवन का फलस्वरूप स्वयं की रुग्ण देह को स्वस्थ करना अस्वीकार उद्देश्य है, और जो योगी समस्त प्राणियों के सुख-दुःख कर दिया था। घटना उस समय की है जब वे गले के अपने सुख-दुःख के रूप में अनुभव करता है, वह गीता कैंसर से पीड़ित थे तथा उसके कारण कुछ भी खा-पी नहीं के अनुसार सर्वोत्तम योगी है।
सकते थे। गले में तीव्र पीड़ा होती थी तथा शरीर धीरेसर्व भूतस्थमात्मान सर्वभूतानि चात्मानि ।
धीरे दुर्बल होता चला जा रहा था। वे गले के रोग-ग्रस्त ईक्षते योग युक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः।।
अंश पर मन को एकाग्र करके उसे ठीक करने की
संभावना को उन्होंने यह कह कर अस्वीकार कर दिया कि आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुनः।
जो देह माँ जगदम्बा को अर्पित की जा चुकी है, उस पर सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः।।
वे मन को एकाग्र नहीं कर सकते। लेकिन भक्तों के एक संन्यासी के जीवन का चरम आदर्श इसी सत्य अत्यधिक आग्रह को वे अस्वीकार नहीं कर सके और की उपलब्धि करना है। वह समस्त प्राणियों को अभय उनके आग्रह पर उन्होंने मां जगदम्बा से प्रार्थना की कि प्रदान करता है, क्योंकि सभी प्राणी उसी के अंग हैं। गले को थोड़ा ठीक कर दें जिससे कि वे कुछ खा सकें। "अभयं सर्वभूतेषु मनःसर्व प्रवर्तते।" यही कारण है कि मां जगदम्बा ने जो उत्तर दिया वह वस्तुतः श्री रामकृष्ण किसी प्राणी की हिंसा करना साध्य के विरुद्ध होने से की उच्चतम अद्वैत ज्ञान में प्रतिष्ठा का द्योतक है। माँ त्याज्य है। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार अन्याय का जगदम्बा ने सभी भक्तों को दिखाकर कहा कि तू इतने प्रतिकार न करना” Resist not Evil संन्यास का आदर्श मुखों से तो खा रहा है। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुष है, क्योंकि अन्याय करने वाला भी उसी का एक रूप है। सर्वत्र अपनी ही आत्मा का दर्शन करने के फलस्वरूप
अहिंसा के इस उच्चतम रूप को कुछ दृष्टान्तों के द्वारा स्वयं की देह की विशेष सेवा सुश्रूषा की इच्छा नहीं समझा जा सकता है। एक कृशकाय तपस्वी सूफी सन्त
करते। वे केवल लोक कल्याण के लिए अल्पतम हिंसा मांस की एक दकान के सामने से गजरते हए क्षण भर के को स्वीकार कर दह धारण करते हैं। लिए वहीं खड़े हो गए। उन्हें देखकर मुसलमान दुकानदार उपर्युक्त विश्लेषण से दो बातें स्पष्ट हो गई होंगी।
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अहिंसा परमो धर्मः |
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