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पहुँचाना। व्यास के अनुसार अहिंसा का अर्थ है : " सर्वथा सर्वदा सर्वभूतानां अनभिद्रोह: " - अर्थात् सर्वथा, सदा सभी प्राणियों के प्रति सभी प्रकार के द्वेष-द्रोह - भाव का
त्याग ।
अहिंसा मूलक जैन धर्म के प्रवर्तक वर्धमान महावीर कहते हैं - 'जिसे तू हनन करने योग्य मानता है, वह तू ही है, जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है, वह तू ही है । " जीव का वध अपना ही वध है। जीव की दया अपनी ही दया है। अतः आत्म हितैषी पुरुषों ने सभी तरह की जीव हिंसा का परित्याग किया है । " प्राणी हत्या करना स्वयं की हत्या के समान है, इस बात की प्रतिध्वनि ईशावास्योपनिषद् में भी मिलती है.
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असूर्यानाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः । प्रेत्याभि गच्छन्ति ये के चात्महनोजनाः । । अर्थात् आत्मा का हनन करने वाले लोग मरणोपरान्त अन्धकार से आवृत लोकों को जाते हैं। अज्ञानी लोग अपने अद्वय आत्मस्वरूप को नहीं जानते वे मरणोपरान्त पुनः पुनः जन्म ग्रहण करते हैं तथा पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होते हैं अर्थात् वे बार-बार अपनी ही मृत्यु का कारण बनते हैं। देहात्मबोध के कारण हम स्वयं को दूसरों से पृथक् समझते हैं तथा उसके कारण राग द्वेषादि उत्पन्न होते हैं । जहाँ द्वैत है, दो हैं, वहीं भय है- द्वितीया द्वै भयम् भवति । भगवान् महावीर का कथन है, राग आदि की अनुत्पत्ति ही अहिंसा है तथा उनकी उत्पत्ति हिंसा है ।
“ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसोति । तेषामेवोत्पत्ति हिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः । ।”
तात्पर्य यह कि अद्वैत में प्रतिष्ठित होकर रागादि को जीते बिना अहिंसा में प्रतिष्ठा सम्भव नहीं है ।
कर्म सिद्धान्त के अनुसार भी हम कुछ इसी प्रकार के निष्कर्ष पर आते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर का
अहिंसा परमो धर्मः
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जैन संस्कृति का आलोक
जन्म तथा मृत्यु उसके सुख-दुःख सभी प्रारब्ध कर्म के अधीन होते हैं। अतः यदि कोई किसी की हत्या करता है अथवा किसी को कष्ट पहुँचाता है, तो कर्म सिद्धान्त के अनुसार इसके पीछे पूर्व जन्मों के कर्म ही उत्तरदायी हैं तथा भविष्य में हिंसक अथवा कष्ट देने वाले को इसका फल भोगना होगा। कहा भी गया है :
सुखस्य दुःखस्य न कोऽपि दाता । परो ददातीति कुबुद्धि रेषा । । अहं करोमीति वृथाभिमान ।
स्वकर्मसूत्रेण ग्रथितो हि लोकः । ।
अर्थात् सुख और दुःख का दाता अन्य कोई नहीं
है । यह सोचना कि दूसरा सुख-दुःख प्रदान करता है। कुबुद्धि है; मैंने ऐसा किया है, यह व्यर्थ का अभिमान है । वस्तुतः सभी स्वकर्म के सूत्र द्वारा बँधे हैं। तात्पर्य यह कि कर्मवाद के अनुसार पर हिंसा जैसी कोई चीज नहीं है । दूसरे को मारने से स्वयं की ही हानि होती है। यदि किसी व्यक्ति या पशु को बाँधकर उसकी शक्ति का हनन किया जाय तो इसके परिणाम स्वरूप बंधनकर्ता की इन्द्रियाँ निस्तेज हो जाती हैं। दूसरों को दुःख प्रदान करने पर नारकीय दुःख प्राप्त होता है, तथा दूसरे का प्राण हरने से या तो व्यक्ति अल्पायु होता है, अथवा दीर्घायु होने पर भी रुग्ण होता है। इस तरह दूसरे को कष्ट देने पर हम वस्तुतः स्वयं को कष्ट देने की ही भूमिका तैयार करते हैं ।
विशुद्ध व्यावहारिक दृष्टि से यदि देखा जाए भी पूर्ण अहिंसा संभव प्रतीत नहीं होती । शरीर धारण के लिए न्यूनाधिक मात्रा में हिंसा को स्वीकार करना ही पड़ता है। श्वास-प्रश्वास में असंख्य कीटाणु मरते हैं; चलने-फिरने में भी छोटे-मोटे अनेक कीड़े-मकोड़े पैरों तले कुचल जाते हैं; वनस्पतियों में भी प्राण होता है तथा उसका भोजन भी एक प्रकार की हिंसा है। वस्तुतः जीवन धारण में एक प्राणी दूसरे को आहार बनाकर ही जीवित रहता है। कृ
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