________________ संयुक्त राष्ट्र संघ में जिन प्रश्नों की चर्चा होती है, उन तमाम प्रश्नों पर हमारे एक छोटे गांव के चबूतरे पर भी चर्चा होती है। मात्र इन प्रश्नों का फलक छोटा है अन्यथा उनका स्वरूप तो एक-जैसा ही है। इसका मतलब है कि अहिंसा का अर्थतन्त्र प्रत्येक भारतीय ग्राम को एक ऐसे 'स्व-क्षम जगत्वर्ती ग्राम के रूप में विकसित देखना चाहता है जा लघु संयुक्त राष्ट्र संघ (मिनी यूनो) हो। ऐसे ग्राम पूंजी को ऋण करके ही उभर सकते हैं। जब तक हम विनिमय-पद्धति (बार्टर-सिस्टम) को नहीं लौटायेंगे, जीवन की गुणवत्ता (क्वालिटी) को लौटाना संभव नहीं होगा। जब वस्तुओं का विनिमय होगा, तब उनकी गुणवत्ता के साथ कोई बदसलूकी नहीं कर पायेगा। मूल वस्तु के साथ मूल वस्तु का विनिमय होगा। ऐसे में वे सारे व्यय और विकार आपोआप घट या हट जाएंगे जो वस्तु की मौलिकता को अवमिश्रित करते हैं और उसके साथ अन्धी व्यापारिकता को जोड़ते हैं। गांधीजी ने ऐसे ग्रामतन्त्र के अन्तर्गत विकसित ग्राम को 'स्वर्ग-का-बगीचा' कहा है। ___ हमारा यह मानना है कि भारतीय ग्राम तक विकास-की-झिरी शहरों से या दुनिया के विकसित मुल्कों से पहुंचेगी'। यह गलत है। ऐसा करने या कहने से हमारी बुनियाद कमजोर होगी। सब जानते हैं कि जब तक समाज में समानता और अमन आविर्भूत नहीं होंगे, आतंक और हिंसा बने रहेंगे, तब तक विकास के रुद्ध स्रोत खुल नहीं पायेंगे। हम दो कदम आगे बढ़ेंगे और चार कदम पीछे आयेंगे। यह गणित अवनति और विनाश का गणित है, इसे हम उत्थान और विकास का गणित नहीं कह सकते। जब तक हम छोटे पैमाने पर, बैंकों-के-जाल से मुक्त हो कर - उत्पादन की प्रक्रिया में नहीं आयेंगे, यह असंभव ही होगा कि हम मनुष्य और मनुष्य के मध्यवर्ती फासलों को घटा पायें। जब तक नफे की जगह समाज/जनहित के लिए उत्पादन की शुरुआत नहीं होगी, नयी समाज-रचना का शिलान्यास संभव नहीं होगा। यह मान कर चलना कि अर्थतन्त्र के बीज विकसित देशों से आयेंगे और उनकी स्वस्थ फसलें भारतीय ग्रामों में पनपेंगी, बुनियादी तौर पर ही ग़लत है। हमारे गांवों में विकास की अनगिनत उर्वर संभावनाएं (पोटेंशियल्य) हैं, हम असल में उनका क़द छोटा करके उनके बारे में सोचने लगे हैं और उस 'अनलिखे ज्ञान' (ग्राम-विज्ञान) को भूल रहे हैं, जो मैदान के जल को सिंचाई के लिए बगैर किसी यन्त्र की मदद के पहाड़ों पर चढ़ा ले जाता रहा है। मध्यप्रदेश के निमाड़ अंचल में इस तरह की सिंचाई-व्यवस्था को आज भी प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। आज का उद्योगवर्ती अर्थतन्त्र प्रकृति को कमाई का साधन मानकर चलता है, उसके लिए पेड़-पौधे, नदी-झरने, पर्वत-पहाड़, वराह-हाथी, मछली-मुर्गी, केंचुए-खरगोश सब कमाई के जरिए हैं, इसीलिए वह इन सबका क्रूरतम दोहन करता है और उनके प्रति जो भी क्रूरतापूर्ण और असम्मानजनक संभव है, उसे करने से नहीं चूकता। यही कारण है कि आज के अर्थतन्त्र ने जीवन-के-प्रति-सम्मान की भावना को नष्ट कर दिया है और वह सिर्फ पूंजी के पीछे पिशाच की भांति पड़ गया है। अहिंसा-का-अर्थतन्त्र हिंसा को छोटा/व्यर्थ करने का अर्थतन्त्र है। वह दुनिया के कोने-कोने में हिंसा और क्रूरता के कद को छोटा करना चाहता है और चाहता है कि सर्वत्र समता की संभावनाएं फले-फूलें। हमारी विनम्र राय में जब दुनिया का हर गांव स्व-क्षम जगत्वर्ती गांव बनेगा तभी विश्व-शान्ति की कल्पना साकार होगी अन्यथा वह यावच्चन्द्रदिवाकरौ स्वप्न बनी रहेगी। ___जापान एक ऐसा देश है, जिसने औद्योगिक क्रान्ति का अधिकतम दोहन करते हुए भी प्रो० काओरू यामागुची की 'सक्षम जगत्वर्ती ग्राम' (सस्टेनेबल ग्लेबल विलेज) की अवधारणा को जन्म दिया है। प्रो0 यामागुची ने इस ग्राम-अर्थतन्त्र को 'म्युराटोपिअन अर्थतन्त्र' का नाम दिया है। 'म्युरा' जापानी का शब्द है, जिसका अर्थ है 'ग्राम'- एक ऐसा ग्राम है, जहां के लोग आत्मनिर्भर हों, परम्परित रीति-रिवाज़ों में आस्था रखते हों, प्रकृति के प्रति जिनके मन में सम्मान की भावना हो और जो अवकाश में एक-दूसरे की मदद के लिए कमर कसे हों। जब हम 'म्युरा' शब्द का विखण्डन करते हैं, तब हमें 'म्युराटोपिअन' अर्थतन्त्र की खूबियों का और अधिक गहराई से पता चलता है। 'म्यु' का अर्थ है 'न होना' (नथिंगनेस) तथा 'रा' का अर्थ है 'अपरिग्रह' यानी 'स्वामित्व-की-अनुपस्थिति' / यहां इस तरह 'म्युरा' का अर्थ हुआ 'कुछ न होना' अर्थात् मालिकी का विसर्जन, उसकी गैरहाजिरी। 'टोपिआ' ग्रीक शब्द है, जिसका अर्थ है 'जगह'। इस तरह कुल मिलाकर 'म्युरा' एक ऐसी जगह हुआ जहां आगामी युग की नयी समाज-रचना का सूत्रपात होगा। सहज ही सवाल उठता है कि इस नयी समाज-रचना के आधार क्या होंगे? आज हम देख रहे हैं कि यन्त्रोद्योग-प्रधान समाज-रचना सफल नहीं हुई है। चारों ओर प्रदूषण है, महामारियां हैं, भूखमरी और गरीबी है, कृत्रिम अभाव बने हुए हैं। पूंजीखोर-बाज़ारोन्मुख-सट्टेबाज़ अर्थतन्त्र ने विश्व-की-रीढ क्षत-विक्षत कर दी है। साम्यवादी अर्थतन्त्र परास्त हो चुका है। जो अर्थतन्त्र आज है, श्रीमती नंदिनी जोशी के अनुसार, उसके मुख्यत: छह आधार हैं। 1. एक-जैसा माल (स्टैंडर्डाइज़ेशन), 2. मनुष्य का एकांगी विकास (स्पेशियलाइज़ेशन), 3. प्रचण्ड व्यवस्था-तन्त्र (सिंक्रोनाइजेशन), 4. केन्द्रीकृत विकास (कंसेन्ट्रेशन), 5. अधिकतम कमाई का ध्येय (मेक्झेमाइज़ेशन), 6. आर्थिक तथा राजकीय सत्ताओं का केन्द्रीकरण (सेंट्रलाइज़ेशन)। लेकिन जो ग्राम-तन्त्र क्षितिज पर आना चाहता है, उसके मुख्य दो आधार हैं- 1. स्वावलम्बन, 2. परोपकार या परस्परउपग्रह (एक-दूसरे की मदद अथवा एक-दूसरे के सथ जीवन्त हिस्सेदारी)। उपर्युक्त अर्थतन्त्र के मुख्य लक्षण होंगे- उत्पादक और ग्राहक एक, मालिक-मजदर एक, बचत करने वाला और खर्च करने वाला एक, मकान-मालिक और किरायेदार एक, प्रकृति के प्रति परिपूर्ण सम्मान अर्थात् उसे कमाई का साधन न मानना, न बनाना। इस तरह आने वाला मानव-समाज वह नहीं होगा जो आज मृग-मरीचिका की तरह हमारे जीवन में प्रवेश कर गया है, बल्कि वह 'म्युराटोपिअन अर्थतन्त्र' होगा जो दुनिया को अहिंसा और अपरिग्रह के जरिए अधिक सुंदर और बेहतर बनायेगा। * सुंदर दुनिया माटे सुंदर संघर्ष (गुजराती), नंदिनी जोशी, उन्नति प्रकाशन, अहमदाबाद380 006, 1993 हीरक जयन्ती स्मारिका विद्वत् खण्ड / 40 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org