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________________ १७२ आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ शैली को विद्यानन्द ने स्वयं ‘जीयादष्टसहस्री........प्रसन्न-गंभीर-पदपदवी' (अष्ट स., पृ. २१३) शब्दों द्वारा प्रसन्न और गंभीर पदावली युक्त बतलाया है । इसमें व्याख्येय देवागम और 'अष्टशती' प्रतिपाद्य विषयों का विषदतया विवेचन किया गया है । इसके अतिरिक्त विद्यानन्द के काल तक विकसित दार्शनिक प्रमयों और अपूर्व चर्चाओं को भी इसमें समाहित किया है । उदाहरणार्थ नियोग, भावना और विधिवाक्यार्थ की चर्चा, जिसे प्रभाकर और कुमारिल मीमांसक विद्वानों तथा मण्डनमिश्र आदि वेदान्त दार्शनिकों ने जन्म दिया है और जिसकी बौद्ध मनीषी प्रज्ञाकर ने सामान्य आलोचना की है, जैन वाङ्मय में सर्वप्रथम विद्यानन्द ने ही इसमें प्रस्तुत की एवं विस्तृत विशेष समीक्षा की है। इसी तरह विरोध, वैयधिकरण्य आदि आठ दोषों की अनेकान्त वाद में उद्भावना और उसका समाधान दोनों हमें सर्वप्रथम इस अष्टसहस्री में ही उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार ‘अष्ट सहस्री' में विद्यानन्द ने कितना ही नया चिन्तन और विषय विवेचन समाविष्ट किया है। महत्त्व एवं गरिमा इसका सूक्ष्म और गम्भीर अध्ययन करने पर अध्येता को यह स्पष्ट हो जाता है कि यह कृति अतीव महत्त्वपूर्व और गरिमामय है । विद्यानन्द ने इस व्याख्या के महत्त्व की उद्घोषणा करते हुए लिखा है श्रोतव्याऽष्टसहस्री श्रुतैः किमन्यैः सहस्रसंख्यायैः । विज्ञायते यथैव स्वसमय-परसमय-सद्भावः ॥ 'हजार शास्त्रों का पढ़ना-सुनना एक तरफ है और एक मात्र इस कृति का अध्ययन एक ओर है, क्यों कि इस एक के अभ्यास से ही स्वसमय और परसमय दोनों का विज्ञान हो जाता है।' व्याख्याकार की यह घोषणा न मदोक्ति है और न अतिशयोक्ति । 'अष्टसहस्री' स्वयं इसकी निर्णायिका है । और 'हाथ कंगन को आरसी क्या' इस लोकोक्ति को चरितार्थ करती है । हमने इस का गुरुमुख से अध्ययन करने के उपरान्त अनेकबार इसे पढ़ा और पढ़ाया है। इसमें वस्तुतः वही पाया जो विद्यानन्द ने उक्त पद्य में व्यक्त किया है। १ भावना यदि वाक्यार्थो नियोगो नेति का प्रमा। तावुभौ यदि वाक्यार्थी हतौ भट्टप्रभाकरौ ॥ कार्येऽर्थचोदना ज्ञानं स्वरूपे किन्न तत्प्रमा । द्वयोच्चेद्धन्त तौ नष्टौ भट्टवेदान्तवादिनौ ॥ (अष्ट स., पृ. ५-३५.) २ 'इति किं नश्चिन्तया, विरोधादि दूषणस्यापि तथैवापसारितत्वात् ।...ततो न वैयधिकरण्यम् । एतनोभय दोष प्रसङ्गोऽप्यपास्तः,...एतेन संशयप्रसङ्गः प्रत्युक्तः, ..... तत एव न संकरप्रसङ्गः, एतेन व्यतिकर प्रसङ्गो व्युदस्तः...तत एव नानवस्था...।'-अष्टस., पृ. २०४-२०७ । ३ अष्टस., पृ. १५७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210131
Book TitleAshtasahastri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size697 KB
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