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________________ अष्टसहस्त्री १७१ यह देवागमालङ्कार या देवागमालकृति तथा आप्त-मीमांसालङ्कार या आप्तमीमांसालङ्कृति नामों से भी उल्लिखित है' और ये दोनों नाम अन्वर्थ हैं। 'अष्टसहस्री' नाम भी आठ हजार श्लोक प्रमाण होने से सार्थक है । पर इसकी जिस नाम से विद्वानों में अधिक विश्रुति है और जानी-पहचानी जाती है वह नाम 'अष्टसहस्री' ही है। उपर्युक्त दोनों नामों की तरह 'अष्टसहस्री' नाम भी स्वयं विद्यानन्द प्रदत्त है। मुद्रित प्रति के अनुसार उसके दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठे, सातवें, आठवें और दशवें परिच्छेदों के आरम्भ में तथा दशवें के अन्त में जो अपनी व्याख्या-प्रशंसा में एक-एक पद्य विद्यानन्द ने दिये हैं उन सब में 'अष्टसहस्री' नाम उपलब्ध है। नवमें परिच्छेद के आदि में जो प्रशंसा-पद्य है उसमें भी 'अष्टसहस्री' नाम अध्याहृत है, क्योंकि वहाँ 'सम्पादयति' क्रिया तो है, पर उसका कर्ता कण्ठत: उक्त नहीं है, जो 'अष्टसहस्री' के सिवाय अन्य सम्भव नहीं है। रचनाशैली और विषय-विवेचन इसकी रचना-शैली बडी गम्भीर और प्रसन्न है। भाषा परिमार्जित और संयत है। व्याख्येय के अभिप्राय को व्यक्त करने के लिये जितनी पदावली की आवश्यकता है उतनी ही पदावली को प्रयुक्त किया है। वाचक जब इसे पढता है तो एक अविच्छिन्न और अविरल गति से प्रवाहपूर्ण धारा उसे उपलब्ध होती है, जिसमें वह अवगाहन कर आनन्द-विभोर हो उठता है । समन्तभद्र और अकलंक के एक-एक पद का मर्म तो स्पष्ट होता ही जाता है उसे कितना ही नव्य, भव्य और सम्बद्ध चिन्तन भी मिलता है । विद्यानन्द ने इसमें देवागम की कारिकाओं और उनके प्रत्येक पद-वाक्यादिका विस्तार पूर्वक अर्थोद्घाटन किया है। साथ में अकलंकदेव की उपर्युक्त 'अष्टशती' के प्रत्येक स्थल और पदवाक्यादि का भी विशद अर्थ एवं मर्म प्रस्तुत किया है । 'अष्टशती' को 'अष्टसहस्री' में इस तरह आत्मसात् कर लिया गया है कि यदि दोनों को भेद-सूचक पृथक्-पृथक् टाइपों (शीषाक्षरों) में न रखा जाये और अष्टशती का टाइप बडा न किया जाये तो पाठक को यह भेद करना दुस्साध्य है कि यह 'अष्टशती' का अंश है और यह 'अष्टसहस्री' का। विद्यानन्द ने 'अष्टशती' के आगे, पीछे और मध्य की आवश्यक एवं प्रकृतोपयोगी सान्दर्भिक वाक्य रचना करके 'अष्टशती' को 'अष्टसहस्री' में मणि-प्रवल न्याय से अनुस्यूत किया है और अपनी तलस्पर्शिनी अद्भुत प्रतिभा का चमत्कार दिखाया है । वस्तुतः यदि विद्यानन्द यह 'अष्टसहस्री' न लिखते तो अष्टशती' का गूढ़ रहस्य उसी में ही छिपा रहता और मेधावियों के लिये वह रहस्यपूर्ण बनी रहती । इसकी रचना १. आप्तपरीक्षा, पृ. २३३, २६२, अष्टस. पु.१, मङ्गलपद्य तथा परिच्छेदान्त में पाये जाने वाले समाप्ती पुष्पिका वाक्य । २. 'जीयादष्टसहस्री....' (अष्ट स., पृ. २१३), 'साष्टसहस्री सदा जयतु ।' ( अष्ट स. २३१) ३. १४५४ वि. सं. की लिखी पाटन-प्रति में ये प्रशंसा पद्य परिच्छेदों के अन्त में हैं। ४. सम्यगवबोधपूर्व पौरुषमपसारिताखिलानर्थम् ।। दैवोपेतमभीष्टं सर्व सम्पादयत्याशु- अष्ट. स., पृ. २५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210131
Book TitleAshtasahastri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size697 KB
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