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________________ डॉ० प्रेमशंकर त्रिपाठी लीला में अंतरंग सखा के रूप में साथ रहने के कारण इन्हें 'अष्टसखा' भी कहा जाता है। सं० १६०२ में गोस्वामी विट्ठलनाथ ने 'अष्टछाप' की स्थापना की थी। कुछ विद्वानों की दृष्टि में 'अष्टछाप' की स्थापना सं० १६२२ (१५६५ ई०) में हुई थी। अष्टछाप के कवियों का रचनाकाल सं० १५५५ से सं० १६४२ तक स्वीकार किया जाता है। अष्टछाप के संस्थापक गोसाई विट्ठलनाथ महाप्रभु वल्लभाचार्य के द्वितीय पुत्र थे, उनका जन्म पौष कृष्ण ९ सं० १५७२ शुक्रवार को काशी के निकट हुआ था। वल्लभाचार्य जी के देहावसान के उपरान्त उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी आचार्य पद पर आसीन हुए परन्तु ८ वर्षों बाद उनके देहावसान के उपरान्त श्री विट्ठलनाथजी आचार्य पद पर सं० १५९५ प्रतिष्ठित हुए। उनके नेतृत्व में पुष्टिमार्गीय वैष्णव सम्प्रदाय को पर्याप्त यश की प्राप्ति हुई। सं० १६४२ वि० में विट्ठलनाथजी का गोलोकवास हुआ। गो० विट्ठलनाथजी ने अपने पिता के सिद्धांतों के प्रचारप्रसार हेतु उनके ग्रन्थों का अध्ययनकर भाव पूर्ण टीकाएँ लिखीं तथा कुछ स्वतंत्र ग्रन्थों की भी रचना की। उनके द्वारा रचित लगभग बारह ग्रंथ हैं। विट्ठलनाथजी के भक्तों की संख्या बहुत अष्टछाप की कविता यानी भक्ति, बड़ी थी। इन भक्तों में २५२ वैष्णव भक्तों को प्रसिद्धि प्राप्त काव्य एवं संगीत की त्रिवेणी तुझा हुई। सभी भक्त पुष्टिमार्ग के अनुयायी, कुशल गायक और प्रभावी रचनाकार थे। गोसाई विट्ठलनाथ ने इन भक्तों में सर्वश्रेष्ठ पुष्टिमार्ग के प्रतिष्ठाता महाप्रभु वल्लभाचार्य की भक्ति चार तथा अपने पिता के शिष्यों में चार रचनाकारों को मिलाकर पद्धति को भक्तिकाल के जिन प्रमुख आठ कवियों ने अपनी ही 'अष्टछाप' की प्रतिष्ठा की थी। इन आठों कवियों की अनन्य काव्य प्रतिभा से परिपुष्ट किया था, उन्हें 'अष्टछाप' या भक्ति, संगीत साधना तथा काव्य निष्ठा केवल कृष्ण भक्ति 'अष्टसखा' के नाम से जाना जाता है। ये आठ कवि हैं : सूरदास, शाखा की ही नहीं हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य धरोहर है। परमानंददास, कुंभनदस, कृष्णदास, नन्ददास, चतुर्भुजदास गोविन्द सूरदास : (१४७८ ई०-१५८२ ई०) भक्तिकाल की स्वामी और छीत स्वामी। इनमें से प्रथम चार श्रीमद् वल्लभाचार्य कृष्णभक्ति शाखा को अपने पदों से सर्वाधिक समृद्धि प्रदान के तथा परवर्ती चार कवि गोस्वामी विट्ठलनाथजी के शिष्य थे। करने वाले सूरदास का जन्म दिल्ली के निकट सीही ग्राम में एक कृष्णभक्ति शाखा के ये आठों कवि परमभक्त होने के निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। सूर के जन्म-मृत्यु साथ-साथ काव्य-मर्मज्ञ और सुमधुर गायक थे। ये सभी ब्रज क्षेत्र संबंधी वर्ष को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अधिकांश अध्येता के गोवर्द्धन पर्वत पर स्थित श्रीनाथजी के मन्दिर में कीर्तन सेवा उनका जन्म सं० १५३५ (१४७८ ई०) तथा मृत्यु सं० करते हुए पद रचना किया करते थे। वल्लभ सम्प्रदाय में दीक्षित १६४० (१५८३ ई०) मानते है। वे जन्मांध थे या बाद में कवियों की रचनाओं में भक्ति की जो धारा प्रवाहित हुई है, वह नेत्रहीन हुए, इस बात पर भी मतैक्य नहीं है- लेकिन इस बात अपने अन्त:करण में वात्सल्य, सख्य, माधुर्य, दास्य आदि भावों पर सभी एकमत हैं कि अष्टछाप के कवियों में भक्ति और को समेटे हुए हैं। उत्तर भारत में सगुण भक्ति को प्रतिष्ठित करने काव्य दोनों दृष्टियों से सूर का साहित्य सर्वोत्कृष्ट है। में इन कवियों का अवदान अविस्मरणीय है। लौकिक एवं वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बद्ध होने के पूर्व सूरदास के पदों अलौकिक दोनों दृष्टियों से इनकी रचनाएँ विशिष्ट हैं। में दैन्य एवं विनयभाव की प्रधानता रही है- 'हौं सब पतितन को वल्लभाचार्यजी के शिष्य तथा कला-साहित्य, एवं संगीत नायक' । 'हौं हरि सब पतितन को टीकौ' । वल्लभाचार्यजी की मर्मज्ञ विट्ठलनाथजी ने इन ८ कवियों को अपनी प्रशंसा से सत्प्रेरणा से वे दास्य, सख्य एवं माधुर्य भाव के पद लिखने लगे। विभूषित कर आशीर्वाद की छाप लगायी थी, यही कारण है कि वल्लभाचार्यजी ने श्री मद्भागवत की स्वरचित सुबोधिनी टीका ये रचनाकार 'अष्टछाप' के नाम से सुख्यात हुए। श्रीनाथजी की की व्याख्या कर उन्हें कृष्ण-लीला से सुपरिचत कराया। ० अष्टदशी / 1930 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210129
Book TitleAshtachap ki Kavita Yani Bhakti Kavya evam Sangit ki Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPremshankar Tripathi
PublisherZ_Ashtdashi_012049.pdf
Publication Year2008
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Kavya
File Size591 KB
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