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अर्ह का विराट् स्व रूप
-संघ प्रमुख श्री चन्द न मुनि (संस्कृत-प्राकृत के उद्भट विद्वान, कवि
एवं अध्यात्मयोगी साधक)
अहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचकं परमेष्ठिनः । ।
सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥ -ऋषिमण्डलस्तोत्र ३ अहं बड़ा चामत्कारिक मन्त्र है । उसे अक्षर-ब्रह्म कहा गया है । जो कभी क्षर नहीं होता, क्षययुक्त नहीं होता, मिटता नहीं, उसे अक्षर कहा जाता है-"न क्षरतीति अक्षरम्" । अहँ परमेष्ठी का वाचक है । परमेष्ठिन् शब्द में अहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु-इन पाँचों का समावेश हो जाता है। इन पाँचों को जैन-दर्शन में परमेश्वर रूप में स्वीकार किया गया है । जैन परम्परा में सिद्धचक्र यन्त्र का बहत महत्व है। उसकी विधिवत् पूजा, आराधना होती है। “अहँ" को उसके बीज मन्त्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इसीलिए इसे "सिद्धचक्रस्य सद्बीजम्"-विशेषण से विभूषित किया गया है। ऋषि कहते है “सर्वतः प्रणिदध्महे"-हम सर्वतोभावेन इसका प्रणिधान यानी जप आदि के द्वारा आराधना करते हैं । यहाँ एक गहरी बात है-क्रिया में उत्तम पुरुष के बहुवचन के वर्तमान का प्रयोग इसलिए किया गया है कि हम निरन्तर सर्वांगीण दृष्टि से इसका ध्यान करते रहे हैं, करते हैं । इसी अर्ह की व्याख्या के लिए एक विशेष गीत की रचना की गई है
ॐ अर्ह-अहं गाएजा। अहं-अहं गा-गाकर इस मन को विमल बनाएजा ॥ ध्रव ।। अहं-अहं रटन लगाते, भव-भव के बन्धन कट जाते । अन्दर के और बाहर के क्लेशों को दूर हटाये जा ॥१॥ ॐ अहं-अहं गाएजा ॥
अहं-अहं में लयलीन होने से मन निर्मल बनता है। मन को निर्मल बनाना ही साधक का उत्कृष्ट लक्ष्य है । जप वास्तव में अन्तःशुद्धि का कार्य करता है। वचन और काया की शुद्धि अन्यान्य खण्ड ४/१
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