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लिए उन्हें 'परोक्ष' कहा है तथा शेष तीन ज्ञानों ( अवधि, मन:पर्यय और केवल ) में विषय स्पष्ट एवं पूर्ण प्रतिफलित होता है, अतः उन्हें 'प्रत्यक्ष' प्रतिपादन किया है ।
प्रतिपत्ति-भेदसे भी प्रमाण-भेदका निरूपण किया गया है । यह निरूपण हमें पूज्यपाद - देवनन्दिकी सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध होता है। पूज्यपादने लिखा है कि प्रमाण दो प्रकारका है :- १. स्वार्थ और २. परार्थं । श्रुतज्ञानको छोड़कर शेष चारों मति, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान स्वार्थ- प्रमाण हैं, क्योंकि उनके द्वारा स्वार्थ ( ज्ञाता के लिए) प्रतिपत्ति होती है, परार्थ (श्रोता या विनेय जनों के लिए) नहीं । परार्थप्रतिपत्तिका तो एकमात्र साधन वचन है और ये चारों ज्ञान वचनात्मक नहीं हैं । किन्तु श्रुत -प्रमाण स्वार्थ और परार्थ दोनों प्रकारका है । ज्ञानात्मक श्रुत प्रमाणको स्वार्थ प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक श्रुत प्रमाणको परार्थ प्रमाण कहा गया है । वस्तुतः श्रुत प्रमाणके द्वारा स्वार्थ प्रतिपत्ति और परार्थ- प्रतिपत्ति दोनों होती हैं । ज्ञानात्मक श्रुत प्रमाण द्वारा स्वार्थ प्रतिपत्ति और वचनात्मक परार्थ श्रुत प्रमाण द्वारा परार्थ प्रतिपत्ति होती हैं । ज्ञाता वक्ता जब किसी वस्तुका दूसरे को ज्ञान करानेके लिए शब्दोच्चारण करता है तो वह अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तुमें अंश कल्पना - पट, घट, काला, सफेद, छोटा, बड़ा आदि भेदों द्वारा उसका श्रोता या विनेयोंको ज्ञान कराता है । ज्ञाता या वक्ताका वह शब्दोच्चारण उपचारतः वचनात्मक परार्थं श्रुतप्रमाण है और श्रोताको जो वक्ताके शब्दोंसे बोध होता है वह वास्तव परार्थ श्रुत प्रमाण है तथा ज्ञाता या वक्ताका जो अभिप्राय रहता है और जो अंशग्राही है वह ज्ञानात्मक स्वार्थ श्रुतप्रमाण है । निष्कर्ष यह कि ज्ञानात्मक स्वार्थश्रुत प्रमाण और वचनात्मक परार्थ श्रुतप्रमाण दोनों नय हैं । यही कारण है कि जैन दर्शन-ग्रन्थों में ज्ञाननय और वचननयके भेदसे दो प्रकारके नयोंका भी विवेचन मिलता है ।
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि नय श्रुत प्रमाणका अंश है, वह मति, अवधि तथा मन:पर्ययज्ञानका अंश नहीं है, क्योंकि मत्यादि द्वारा ज्ञात सीमित अर्थके अंशमें नयकी प्रवृत्ति नहीं होती । नय तो समस्त पदार्थोके अंशोंका एकैकशः निश्चायक है, जबकि मत्यादि तीनों ज्ञान उनको विषय नहीं करते । यद्यपि केवलज्ञान उन समस्त पदार्थों के अंशोंमें प्रवृत्त होता है और इसलिए नयको केवलज्ञानका अंश माना जा सकता है किन्तु न तो उन्हें परोक्ष-अस्पष्ट रूपसे जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष ( स्पष्ट ) रूपसे उनका साक्षात्कार करता है । अत: नय केवलमूलक भी नहीं है । वह सिर्फ परोक्ष श्रुतप्रमाणमूलक ही है । *
१. 'तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः ।
दर्पणत इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥ ' - अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसि० का ० १ । २. " तत्र प्रमाणं द्विविधं स्वार्थं परार्थं च । तत्र स्वार्थं प्रमाणं श्रुतवर्ज्जम् । श्रुतं
पुनः स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मकं स्वार्थं वचनात्मकं परार्थम् । तद्विकल्पा नयाः । " — पूज्यपाद, सर्वार्थसि० १- ६ ।
३. " ततः परार्थाविगमः प्रमाणनयैर्वचनात्मभिः कर्त्तव्यः स्वार्थ इव ज्ञानात्मभिः प्रमाणनयैः, अन्यथा कात्स्र्त्स्न्येनैकदेशेन तत्त्वार्थाधिगमानुपपत्तेः । "
- विद्यानन्द, तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ० १४२ ।
४. "मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा । ज्ञातस्यार्थस्य नांशेऽस्ति नयानां वर्तनं ननु ॥ २४ ॥ निःशेषदेशकालार्थ गोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भाषितं कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टितः ॥ २५॥
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