________________
अप्पा सो परमप्पा : डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल
पिता के अचानक स्वर्गवास के बाद वह बालक अनाथ हो गया और कुछ दिनों तक तो बचीखुची सम्पत्ति से आजीविका चलाता रहा, अन्त में रिक्शा चलाकर पेट भरने लगा। चौराहे पर खड़े होकर जोर-जोर से आवाज लगाता कि दो रुपये में रेलवे स्टेशन, दो रुपये में रेलवे स्टेशन, "
********
अब मैं आप सबसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि वह रिक्शा चलाने वाला बालक करोड़पति है या नहीं ?
क्या कहा ?
नहीं । क्यों ?
क्योंकि करोड़पति रिक्शा नहीं चलाते और रिक्शा चलाने वाले बालक करोड़पति नहीं हुआ
करते ।
अरे भाई, जब वह व्यक्ति ही करोड़पति नहीं होगा, जिसके करोड़ रुपये बैंक में जमा हैं तो फिर और कौन करोड़पति होगा ? पर भाई, बात यह है कि उसके करोड़पति होने पर भी हमारा मन उसे करोड़पति मानने को तैयार नहीं होता; क्योंकि रिक्शावाला करोड़पति हो - यह बात हमारे चित्त को सहज स्वीकार नहीं होती । आज तक हमने जिन्हें करोड़पति माना है, उनमें से किसी को रिक्का चलाते नहीं देखा और करोड़पति रिक्शा चलाये - यह हमें अच्छा भी नहीं लगता; क्योंकि हमारा मन ही कुछ इस प्रकार का बन गया है ।
'कौन करोड़पति है और कौन नहीं है ?' - यह जानने के लिए आज तक कोई किसी की तिजोरी के नोट गिनने तो गया नहीं । यदि जायेगा भी तो बतायेगा कौन ? बस, बाहरी ताम-झाम देखकर ही हम किसी को करोड़पति मान लेते हैं । दस-पाँच नौकर-चाकर, मुनीम - गुमाश्ते और बंगला, मोटरकार, कलकारखाने देखकर ही हम किसी को करोड़पति मान लेते हैं, पर यह कोई नहीं जानता कि जिसे हम करोड़पति समझ रहे हैं, हो सकता है वह करोड़ों का कर्जदार हो। बैंक से करोड़ों रुपये उधार लेकर कल-कारखाने चल निकलते हैं और बाहरी ठाठ-बाट देखकर अन्य लोग भी सेठजी के पास पैसे जमा कराने लगते हैं । इस प्रकार गरीबों, विधवाओं, ब्रह्मचारियों द्वारा उनके पास जमा कराये गये करोड़ों रुपयों से निर्मित बाह्य ठाठ-बाट से हम उसे करोड़पति मान लेते हैं ।
इस संभावना से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि जिसे हम करोड़पति साहूकार मान रहे हैं; वह लोगों के करोड़ों रुपये पचाकर दिवाला निकालने की योजना बना रहा हो ।
ठीक यही बात सभी आत्माओं को परमात्मा मानने के सन्दर्भ में भी है। हमारा मन इन चलतेफिरते, खाते-पीते, रोते-गाते चेतन आत्माओं को परमात्मा मानने को तैयार नहीं होता । हमारा मन कहता है कि यदि हम भगवान होते तो फिर दर-दर की ठोकर क्यों खाते फिरते ? अज्ञानांधकार में डूबा हमारा अन्तर् बोलता है कि हम भगवान नहीं हैं, हम तो दीन-हीन प्राणी हैं; क्योंकि भगवान दीन-हीन नहीं होते और दीन-हीन भगवान नहीं होते ।
अब तक हमने भगवान के नाम पर मन्दिरों में विराजमान उन प्रतिमाओं के ही भगवान के रूप में दर्शन किये हैं, जिनके सामने हजारों लोग मस्तक टेकते हैं, भक्ति करते हैं, पूजा करते हैं । यही कारण है कि हमारा मन डाँटे-फटकारे जाने वाले जनसामान्य को भगवान मानने को तैयार नहीं होता ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org