________________ 268 कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड आप भर जायेंगे / सम्पत्ति का विसर्जन होगा तो गरीबी अपने आप दूर होगी।' आचार्य गुणभद्र ने बहुत सुन्दर लिखा है कि प्रत्येक के पास एक आशा रूपी गड्ढा है उसमें यदि सारे विश्व को भी डाल दिया जाय तो भी वह कोने में अणु के समान बैठ जायेगा / कवि कहता है कि इस प्रकार के गड्ढे विश्व के सारे प्राणियों के पास एक-एक हैं तो फिर किसके हिस्से में क्या आयेगा? यह कहा नहीं जा सकता। फिर भी यह मोही जीव व्यर्थ ही पंचेन्द्रियविषय-भोगों की आकांक्षा करके दुःखी हो रहा है। इसलिए आवश्यकता है नीति और न्याय से आवश्यकतानुसार धनोपार्जन करने, इच्छाओं तथा वासनाओं को नियन्त्रित एवं नियमित करने की और इसमें अपरिग्रहवाद अपनी अप्रतिम भूमिका निभा सकता है। क्योंकि स्वेच्छापूर्वक सम्पत्ति का सीमा नियन्त्रण करना एक सामाजिक गुण है जिसका परिणाम सामाजिक न्याय व उपयोगी वस्तुओं का उचित वितरण है, इसी से कमजोर वर्ग को जीने का अवसर मिलेगा। परिग्रह की सीमा बाँधकर चलना एक सर्वप्रसरणशील गुण है। जो व्यक्ति के लिए सत्य है, वही समुदाय के लिए भी सत्य होगा चाहे वह समुदाय सामाजिक हो या राजनैतिक / अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना हमारे सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता ला सकती है क्योंकि अपरिग्रह समाज-धर्म एवं समाज-व्यवस्था का सबसे बड़ा अंग है और नैतिकता के आधार पर समस्याओं के समाधान में अपरिग्रहवाद बहुत प्रभावकारी सिद्ध हो सकता है / क्योंकि आज हम समाजवाद लाने की सोचें या गरीबी हटाने को, अपरिग्रह की भावना के बिना वास्तविक समाजवाद नहीं आ सकता और न गरीबी हट सकती है। __ कभी-कभी समाजवाद स्थापित करने का दूसरा ही रूप दिखाई देता है। वह यह कि सत्ता और कानून के द्वारा अमीरी-गरीबी की भेद-रेखा मिटाने का प्रयत्न चलता है / तरह-तरह के कर (टैक्स) लगाकर धनिक और गरीब वर्ग की भेद-रेखा समाप्त करना भी इसका लक्ष्य है किन्तु क्या सत्ता, कानून और बल-प्रयोग सच्चा समाजबाद ला सकता है ? कभी नहीं / बिना हृदय परिवर्तन और जनजागरण के मात्र कानून से किसी भी समस्या का स्थायी एवं अच्छा समाधान सम्भव नहीं / अलक्जंदर सोलझेनित्सीन ने कहा है-"कानून के शब्द इतने ठण्डे, इतने औपचारिक होते हैं कि उनका समाज पर कोई कल्याणकारी प्रभाव नहीं हो सकता / जब भी समाज-जीवन के तन्तु कानूनी सम्बन्धों द्वारा बने होते हैं, एक तरह की मध्यस्तरीय नैतिकता समाज में व्याप्त रहती है और मनुष्य के उत्तम अमिक्रम पंगु हो जाते हैं, इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि अपरिग्रहवाद जैसे सिद्धान्तों पर होने वाली वार्ताओं, विचारों एवं इसके कल्याणकारी परिणामों को लोगों के समक्ष लाया जाय, जिससे भावनात्मक दृष्टि से इस सिद्धान्त को व्यावहारिक रूप देने के लिए अनुकूल वातावरण बनाकर जनमानस को उद्वेलित किया जाय ताकि समता के सुदृढ़ धरातल का निर्माण हो सके। जैन प्रकाश, 8 अप्रैल, 1966 के पृ० 11 से उद्धृत / आशा गर्त: प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् / कस्य कि कियदायाति वृथा वै विषयैषिता / / सर्वोदय साहित्य (सर्व सेवा संघ, वाराणसी) के मई-जून, 1976 के अंक से उद्धृ त / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org