________________ अपरिग्रह और समाजवाद : एक तुलना 403 तात्पर्य यह है कि सब से बड़ा भेद अपरिग्रह तथा समाजवाद में यह है कि अपरिग्रह अपनी आवश्यकता को कम करने पर बल देता है किन्तु समाजवाद अधिक से अधिक कमी व्यय पर नियंत्रण कर सकता है, इससे अधिक उसमें गुजाइश नहीं है। सारांश यह है कि अपरिग्रह एक प्रकार से अपनी जरूरतों को स्वात्मनियंत्रण के साथ कम करने की प्रेरणा देता है जबकि समाजवाद अधिक उत्पादन करके जरूरतें अधिक करके उपभोग की प्रेरणा देता है, यही संभवत: राष्ट्र के समृद्ध होने की कल्पना है। जहां तक राष्ट्र का प्रश्न है उत्पादन-वृद्धि आवश्यक है ताकि मनुष्य को अपनी आवश्यक वस्तु (जीवनोपयोगी) उचित मूल्य पर मिल सके किन्तु जहाँ मगुष्य के स्वयं के जीवन का सम्बन्ध है उसे स्वयं अपनी परिस्थिति के अनुसार अपने उपयोग की वस्तु में, जरूरतों में कमी करना चाहिए ताकि वह प्रत्येक परिस्थिति में अभाव से दुःख अनुभव न करें। Ge आनन्द-वचनामृत दुःख में अगर समभाव रहे तो दुःख दूर हो जाता है। सुख में अगर समभाव न रहे तो सुख का सरोवर सूख जाता है। दुःख-सुख दोनों में समभाव रखना जरूरी है। 0 सुख और आनन्द में अन्तर है-सुख की अनुभूति बाहरी वस्तुओं से भी हो सकती है, किंतु आनन्द की अनुभूति तो आत्मा में ही जागृत होती है। 10 जो व्यक्ति जितना बड़ा होता है, उसे उतनी ही सावधानी से अपने नियमों और आदर्शों पर चलना होता है। कार और बसें, कभी-कभी सड़क से हटकर भी चलें तो कोई खास दुर्घटना नहीं होती, किंतु रेल को तो अपनी पटरी से एक इंच भी इधर उधर हटने का अवकाश नहीं और हटी कि दुर्घटना घटी। बड़े आदमियों का जीवन-पथ रेल का पथ है। - मंगल सच्चा मंगल वह है जो 'म' अर्थात् पांप को 'गल' अर्थात् गाले, पाप को दूर करे / जब पाप दूर हो गया तो विघ्न-बाधा भी स्वतः ही दूर हो गयी। पाप के कारण ही विघ्न आते हैं / अतः मंगल का अर्थ है पाप को दूर करना, पाप का आचरण नहीं करना। - संसार में सबसे बड़ा मंगल धर्म है। क्योंकि धर्म ही मनुष्य को सत्कर्म की ओर बढ़ाता है, सत्कर्म सब सुखों का मूल है / अतः सुख, आनन्द की प्राप्ति का मूल कारण धर्म है। 卐 SURAJRANJANA VAJPAARAKJAJALAJAMANASALALPANAJRANABAJAPAJAMIAAJAKSAAN owerwsnyyyanviroinrrrrrrow Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org