SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६८ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन अन्य : पंचम खण्ड - -.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-.-. है कि क्या समान स्रोत से निकलने वाली एक कथा, एक ही मत में मूल रूप से भिन्न हो सकती है ? यदि नहीं तो, प्रश्न है कि क्या कवियों का यह दावा झूठा माना जाये कि उनका स्रोत समान है ? यदि एक ही स्रोत से विकसित कथा भिन्न हो सकती है, तो किसे सही माना जाये, और किसे • लत ? दूसरों के मत में प्रसिद्ध रामकथा का खण्डन करने के पहले, यह आवश्यक है कि जिनमत की वास्तविक रामकथा का स्वरूप निर्धारित किया जाये ? चरणानुयोग के नाम पर जो कुछ जैन पुराणसाहित्य लिखित है, उसका मूलस्रोत महावीर के मुखरूपी पर्वत से निकली वाणी से जोड़ा जाता है। इसका इतना ही अर्थ है कि मूलकथा का स्रोत समान होते हुए भी उसमें देशकाल के अनुसार कुछ न कुछ जुड़ता रहा। यही उसके जीवन्त और प्रासंगिक होने की सबसे बड़ी शक्ति है । स्वयंभू का यह कथन महत्त्वपूर्ण और वास्तविकता को उजागर करने वाला है कि उन्होंने भी अपनी बुद्धि से रामकथा का अवगाहन किया। जिस प्रकार कोई नदी पर्वत से निकलकर जब बहती है, तो समुद्र में मिलने के पूर्व कई कोण और मोड़ बनाती है, उसी प्रकार एक समान स्रोत से निकलने पर भी रामकथा रूपी नदी, काल और परिस्थितियों के अनुरूप कई कोण और आकार ग्रहण करती है ? उद्गम के सत्य और गति के सत्य में अन्तर होगा ही। वाल्मीकि, विमलसूरि, रविषेण और स्वयंभू की रामकथा का मुख्य ढाँचा लगभग समान है, अवान्तर प्रसंगों, मान्यताओं और चरित्रों की अवतारणाओं में अन्तर हो सकता है। स्वयंभू की रामकथा अयोध्या से प्रारम्भ होती है। राजा दशरथ अयोध्या के राजा हैं और रावण लंका का। सागरबुद्धि निमित्तज्ञानी से यह जानकर कि दशरथ के पुत्रों द्वारा, जनक की पुत्री के कारण, रावण मारा जायेगा, विभीषण दोनों राजाओं के वध का षडयन्त्र रचता है। नारद मुनि यह खबर दशरथ और जनक को देते हैं। वे दोनों अपने पुतले स्थापित कर अपने नगरों से भाग जाते हैं । स्वयंवर में कैकेयी दशरथ के गले से वरमाला डालती है। दूसरे प्रतियोगी राजा उस पर हमला करते हैं। शत्रुओं का सामना करते समय कैकेयी दशरथ के रथ को हांकती है। जीतने पर दशरथ कैकेयी को वरदान देते हैं, जिन्हें वह सुरक्षित रखती है। पुतलों के सिर कटवाकर विभीषण समझता है कि खतरा टल गया। दशरथ अयोध्या वापस आ जाते हैं। चार रानियों से उनके चार पुत्र हैं, अपराजिता से राम, सुमित्रा से लक्ष्मण, कैकेयी से भरत, और सुप्रभा से शत्रुघ्न । राजा जनक की दो संतानें हैं-भामंडल और सीता। पुत्र का, पूर्वजन्म का दुश्मन अपहरण करके ले जाता है। एक बार राजा जनक भीलों और पुलिंदों से घिर जाते हैं। सहायता मांगने पर राम और लक्ष्मण जनक की रक्षा करते हैं। उनकी इच्छा है कि राम से सीता का विवाह कर दिया जाये परन्तु दबाव के कारण उन्हें स्वयंवर का आयोजन करना पड़ता है। सीता राम का वरण करती है । इस अवसर पर राजा शशिवर्धन अपनी १८ कन्याएँ लेकर उपस्थित होता है, जिनमें से आठ लक्ष्मण और शेष दस दूसरे भाइयों से विवाहित होती हैं । बुढ़ापा आने पर दशरथ राम को सत्ता सौंप कर जैन दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं, परन्तु कैकेयी भरत को राजा बनाने का प्रस्ताव करती है। पिता की आज्ञा पाकर, मना करने पर भी भरत के सिर पर राजपट्ट बांधकर राम वनवास के लिए चल पड़ते हैं। उनके साथ सीता और लक्ष्मण हैं । उनका पहला पड़ाव सिद्धवरकूट में होता है। भरत और कैकेयी उन्हें मनाने आते हैं, परन्तु राम उन्हें लौटाकर, आगे बढ़ते हैं। दण्डकवन में पहुँचने के पूर्व वे दशपुर (सिहोदर वज्रकर्ण) तापसवन, चित्रकूट, भिल्लराज रुद्रभक्ति, यक्ष द्वारा रामपुरी की स्थापना, सुघोषा वीणा की प्राप्ति, जीवन्त नगर, नद्यावर्त में विद्रोही अनंतवीर्य को भरत के अधीन बनाना, क्षेमंजलीनगर, देशभूषण-कुलभूषण मुनियों का उपसर्ग दूर करना, आहारदान, रत्नों की वर्षा, जटायु के सुनहले पंख होना, सीता का उसे अपने पास रखना, उसके पूर्वभव कथन -आदि प्रसंगों में से गुजरते हैं। दण्डकवन में उनकी यात्रा दूसरा मोड़ लेती है । घूमते हुए लक्ष्मण को बांसों के झुरमुट में चन्द्रहास खड्ग दिखायी देता है, उसे उठाकर वे झुरमुट पर प्रहार करते हैं। उसमें साधना करते हुए शंबूक के दो टुकड़े हो जाते हैं। उसकी माँ चन्द्रनखा (रावण की बहन) आगबबूला होकर लक्ष्मण के पास जाती है। परन्तु उनका रूप देखकर, वह मोहित हो उठती है। ठुकराई जाने पर वह खर दूषण को पुत्रवध की खबर देती है, वह रावण को पत्र लिखकर युद्ध करता है। रावण युद्ध के लिए आता है, परन्तु सीता का रूप देखकर लड़ना तो दूर उसके अपहरण की योजना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210084
Book TitleApbhramsa Sahitya me Ramkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Kumar Jain
PublisherZ_Kesarimalji_Surana_Abhinandan_Granth_012044.pdf
Publication Year1982
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Story
File Size691 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy