________________ कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : पंचम खण्ड .... . .................................................................. 'स्थान-स्थान पर रात्रि में विश्रान्ति के लिए ठहरे हुए और जुगाली में जबड़े हिलाते हुए गोधन दिखाई देते हैं—मानो ज्योत्स्ना के धवलोज्ज्वल पुज / ' इन पद्यों से गोविन्द कवि की अभिव्यक्ति की सहजता का तथा उसकी प्रकृतिचित्रण और भावचित्रण की शक्ति का हमें थोड़ा सा परिचय मिल जाता है। यह उल्लेखनीय है कि बाद के बालकृष्ण की क्रीड़ाओं के जैन कवियों के वर्णन में कहीं गोपियों के विरह की तथा राधा सम्बन्धित प्रणयचेष्टा की बात नहीं है। दूसरी बात यह है कि मात्रा या रड्डा जैसा जटिल छन्द भी दीर्घ कथात्मक वस्तु के निरूपण के लिए कितना सुगेय एवं लयबद्ध हो सकता है यह बात गोविन्द ने अपने सफल प्रयोगों से सिद्ध की। आगे चलकर हरिभद्र से इसी का समर्थन किया जाएगा। और छोटी रचनाओं में तो रड्डा का प्रचलन सोलहवीं शताब्दी तक रहा।' स्वयम्भू नवीं शताब्दी के महाकवि स्वयम्भू के दो अपभ्रंश महाकाव्यों में से एक था 'हरिवंशपुराण' या 'अरिष्टनेमिचरित्र' ('रिट्ठणेमिचरिउ') / यह सभी उपलब्ध कृतियों में प्राचीनतम अपभ्रंश कृष्णकाव्य है। अठारह सहस्र श्लोक जितने बृहत विस्तारयुक्त इस महाकाव्य के 112 सन्धियों में से 66 सन्धि स्वयम्भू विरचित हैं। शेष का कर्तृत्व स्वयम्भू के पुत्र त्रिभुवन का और पन्द्रह्वीं शताब्दी के यश:कीति भट्टारक का है। हरिवंश के चार काण्ड इस प्रकार हैं-यादवकाण्ड (13 सन्धियाँ), कुरुकाण्ड (16 सन्धियाँ), युद्धकाण्ड (60 सन्धियाँ), उत्तरकाण्ड (20 सन्धियाँ)। कृष्णजन्म से लेकर द्वारावती स्थापन तक का वृत्तान्त यादवकाण्ड के चार से लेकर आठ सन्धियों तक चलता है। स्वयम्भू ने कुछ अंशों में जिनसेन वाले कथानक का तो अन्यत्र वैदिक परम्परा वाले कथानक का अनुसरण किया है। कृष्णजन्म का प्रसंग स्वयम्भू ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है (सन्धि 4, कडवक 12) भाद्रपद शुक्ल द्वादशी के दिन स्वजनों के अभिमान को प्रज्वलित करते हुए असुरविमर्दन जनार्दन का (मानों कंस के मस्तक शूल का) जन्म हुआ। जो सौ सिंहों के पराक्रम से युक्त और अतुलबल थे, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से लांछित था, जो शुभ लक्षणों से अलंकृत एवं एक सौ साठ नामों से युक्त थे और जो अपनी देह प्रभा से आवास को उज्ज्वल करते थे उन मधुमथन को वसुदेव को उठाया। बलदेव ने ऊपर छत्र रखते हुए उनकी बरसात से रक्षा की। नारायण के चरणांगुष्ठ की टक्कर से प्रतोली के द्वार खुल गए। दीपक को धारण किये हुए एक वृषभ उनके आगे-आगे चलता था। उनके आते ही यमुनाजल दो भागों में विभक्त हो गया। हरि यशोदा को सौंपे गए। उसकी पुत्री को बदले में लेकर हलधर और वसुदेव कृतार्थ हुए / गोपबालिका लाकर उन्होंने कंस को दे दी। मगर विन्ध्याचल का अधिप यक्ष उसको विन्ध्य में ले गया। 1. 'सिद्धहेम' 8-4-361 इस प्रकार है इत्तउं ब्रोप्पिणु सउणि ट्ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि / तो हउं जाणउं एहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि / / इतना कहकर शकुनि रह गया / और बाद में दुःशासन ने यह कहा कि मेरे सामने आकर जब बोले तब मैं जानूं कि यही हरि है / इसमें अर्थ की कुछ अस्पष्टता होते हुए भी इतनी बात स्पष्ट है कि प्रसंग कृष्णविष्टि का है / यह पद्य भी शायद गोविन्द की वैसी अन्य कोई महाभारत विषयक रचना में से लिया गया है। 2. मल्लवेश में मथुरा पहुँचने पर मार्ग में कृष्ण धोबी को लूट लेते हैं और सैरन्ध्री से विलेपन बलजोरी से लेकर गोपसखाओं में बाँट देते हैं / दो प्रसंग हिन्दू परम्परा की ही कृष्णकथा में प्राप्त होते हैं और ये स्वयम्भू में भी हैं। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org