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अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य
डॉ० प्रेम सुमन जैन, अध्यक्ष, जैन विद्या एवं प्राकृत विभाग, उदयपुर विश्वविद्यालय, उदयपुर
अपभ्रंश भाषा में काव्य की रचना कब से प्रारम्भ हुई यह कह पाना कठिन है। क्योंकि अपभ्रंश की प्रारम्भिक रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं। अपभ्रंश के जिन कवियों का अभी तक पता चला है उसमें गोविन्द और चतुर्मुख प्राचीन तम हैं। इनकी अभी तक कोई रचना उपलब्ध नहीं हुई है । स्वयम्भू और महाकवि धवन ने इन्हें अपभ्रंश के आदिकवि के रूप में स्मरण किया है। इससे ज्ञात होता है कि ईसा की छठी शताब्दी में अपभ्रंशकाव्यों की रचना होने लगी थी । स्वम्यभू के समय तक ( ७ वीं श० ) अपभ्रंश-काव्य की परम्परा विकसित हो गयी थी । स्वयम्भू की पौढ़ और परिपुष्ट रचना को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि अपभ्रंश की काव्य रचनाएँ प्राकृत आदि की प्राचीन काव्यपरम्परा से विकसित हुई हैं।
अब तक अपभ्रंश साहित्य की लगभग १५० रचनाएँ प्रकाश में आयी हैं। उनके सम्पादन- प्रकाशन का कार्य चल रहा है। प्रकाशित रचनाओं के अध्ययन से ज्ञात होता है कि अपभ्रंश साहित्य की अनेक विधाऐं है। प्रबन्धकाव्य, खण्डकाव्य, मुक्तककाव्य, सन्धिकाव्य, रासा, चर्चरी आदि अनेक भेद विद्वानों ने किये हैं । किन्तु अपभ्रंश रचनाओं की विषयवस्तु और अन्त संगठना के आधार पर उन्हें प्रबन्धकाव्य और मुक्तककाव्य के अन्तर्गत समाहित किया जा सकता है | अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्यों का विवेचन ही यहाँ प्रतिपाद्य है ।
बन्ध सहित काव्य को प्रबन्धकाव्य कहा जाता है । प्रबन्धकाव्य में कोई पौराणिक, ऐतिहासिक, या लोकविश्रुत कथा होती है, जिसकी वर्णनात्मक प्रस्तुत कवि क्रमबद्ध रूप में करता है । कथा की समस्त घटनाएँ आपस में सम्बद्ध होती है तथा कथा के प्रभाव को अग्रगामी करने के लिए वे परस्पर सापेक्ष होती हैं । प्रमुख कथा के साथ अवान्तरकथाएँ इस प्रकार जुड़ी हुई होती हैं जिससे नायक के चरित्र का क्रमशः उद्घाटन होता रहे। कवि सम्पूर्ण कथा को घटनाओं के आधार पर कई भागों में विभाजित कर लेता है, जो सर्ग, आश्वास, सन्धि आदि के नाम से जाने जाते हैं । प्रबन्धकाव्य के रूप उपलब्ध होते हैं— महाकाव्य एवं खण्डकाव्य । जीवन की अभिव्यक्ति महाकाव्य है तथा कुछ चुनी हुई जीवनपद्धतियों की कारण इन दोनों के प्रेरणास्रोत, उद्देश्य एवं प्रभाव में अन्तर है। में है । महाकाव्य हो अथवा खण्डकाव्य दोनों को अपनी कथा में दोनों ही प्रबन्धकाव्य की कोटि में परिगणित होते हैं ।
सम्पूर्ण अनुभूतियों की अभिव्यंजना खण्डकाव्य है । इस स्वरूप भेद के एकरूपता है तो केवल कथा-सूत्र की अखण्डता निरन्तरता रखना आवश्यक है। इस गुण के कारण
भारतीय साहित्य में अनेक प्रबन्धकाव्यों की रचना हुई है। संस्कृत और प्राकृत में इनकी प्रचुरता है; किन्तु स्वरूपभेद भी है। संस्कृत में अधिकांश महाकाव्यों की रचना हुई है, जिनका आधार अधिकतर पौराणिक है। प्राकृत के प्रबन्धकाव्यों में पौराणिकता होते हुए भी लौकिक और धार्मिक वातावरण अधिक है। प्रवरसेन का 'सेतुबन्धु' और वाक्पतिराज का 'गउडवहो' शास्त्रीय शैली में निर्मित प्राकृत के प्रबन्धकाव्य हैं । विमलसूरिका 'पउमचरियं' पौराणिक शैली का है तो हेमचन्द्र का 'द्वयाश्रयकाव्य' ऐतिहासिक प्रबन्धकाव्य का प्रतिनिधित्व करता है। प्राकृत में रोमांचक शैली में प्रबन्धका लिखे गये हैं। कौतूहल की 'सीलावईकहा' इस मंत्री का उदाहरण है । प्राकृत में रोमांचक शैली में कुछ खण्डकाव्य भी लिखे गये हैं, जिन्होंने प्रबन्धकाव्य की परम्परा को आगे बढ़ाया हैं ।
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