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अपभ्रंशकाव्यत्रयो : एक अनुशीलन
[ले० डॉ० देवेन्द्रकुमार शास्त्री ] युगप्रधानाचार्य जिनवल्लभसूरिजी के पट्टधर, खरतर- निमित्त रची गई। श्रीजिनपालोपाध्याय के द्वारा विहित गच्छ के परमगुरु एवं बहुश्रुत विद्वान् कवि श्रीजिनदत्तसूरि वृत्ति से यह स्पष्ट है कि इस चर्चरी की रचना खरतरगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य थे। यत: -.. वाग्जडदेश के प्रमुख भ० धर्मनाथ के जिनालय व्याघ्रपुर एतत्कुले श्रीजिनवल्लभाख्यो गुरुस्ततः श्रीजिनचन्द्रसूरिः। में श्रीजिनदत्तसूरि द्वारा की गयी थी। श्रोजिनवल्लभसूरि सुपूर्वसूरिस्तदनुक्रमेण बभूव वर्यो बहुलेस्तपोभिः ॥ का स्मरण दो विशेषणों के साथ किया गया है-अपभ्रंशकाव्यत्रयी, पृ० ३५
___ जुगपवरागमसूरिहि गुणिगणदुल्लहह । उन्होंने केवल संस्कृत और प्राकृत भाषा में ही नहीं अपभ्रंश भाषा में भी अनेक ग्रन्थों की रचना कर
युगप्रवर तथा आगमसूरि श्रीजिनवल्लभसूरि का स्मरण भारतीय साहित्य के भाण्डार को अत्यन्त समृद्ध किया। बहुविध किया गया है । वस्तुतः अपभ्रंश लोकभाषा होने उनका जन्म गुर्जर देश में धवलक्कपुर में वि० सं० ११३२ के कारण गुरु-स्तुतियाँ इस भाषा में लिखी जाती थीं। में हुआ था। वे हमड़ जाति के वणिक थे। वि० सं० अपभ्रश में चर्चरो या गीत लिखे जाने के दो मुख्य कारण ११४१ में उन्होंने दीक्षा धारण की थी और वि० थे-लोक प्रचलित शैली में भावों की अभिव्यक्ति तथा जन सं० १९६६ में वे सूरि-पद को प्राप्त हुए थे। अपभ्रश साधारण की समझ में आने वाली बोली का प्रयोग । भाषा में रची हुई उनकी तीन काव्य-कृतियाँ परिलक्षित अभी खोज करते समय लेखक को चित्तौड़गढ़ से श्रीजिनवहोती है। ये तीनों रचनाएं टीका सहित 'अपभ्रशका- ल्लभसूरि के गीत अपभ्रंश भाषा में लिखे हुए मिले हैं। इस व्यत्रयी' में-संकलित हैं। अपभ्रंशकाव्यत्रयी का सम्पादन रचना से यह भी पता चलता है कि श्रीजिनदत्तसूरि की बड़ोदा के प्रसिद्ध जैनपण्डित श्रीलालचन्द्र भगवानदास गांधी कवित्वशक्ति गुरु परम्परा से प्राप्त हुई थी। उनका कथन ने सुयोग्य रीति से किया और जिसका प्रकाशन सन् १९२७ है-लोक में कवि कालिदास की रचनाओं का वर्णन किया में ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट, बड़ौदा से ग्रन्थ क्रमांक ३७ के जाता है। किन्तु वह तभी तक है जब तक कवि जिनवल्लभ अन्तर्गत गायकवाड़ ओरियण्टल सीरिज में हो चुका है।
को नहीं सुना। इसी प्रकार सुकवि वाक्पतिराज की अत्यंत
का नहा सुना। इसा प्रकार सुका अपभ्रंश भाषा में रचे गये श्रीमजिनदत्तसूरि के ग्नन्थ प्रसिद्धि है, किन्तु वह भी जिनवल्लभ के आगे फोकी पड़ निम्नलिखित हैं
जाती है। अन्य अनेक सुकवि उनके काव्यामृत के लोभी १. चर्चरी २. उपदेशरसायनरास ३. कालस्वरूपकुलकम् इनकी समता नहीं कर पाते । जो सिद्धान्त के जानकार
चर्चरी ४७ पत्रों की लघु तथा सुन्दर रचना है। हैं वे उनका नाम सुनकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । इसलिये लोकभाषा तथा शैली में यह रचना नृत्यपूर्वक गान करने लोकप्रवाह से बचकर कुमार्ग को छोड़ कर सत्मार्ग में लगना के लिए पूज्य गुरु श्रीजिनवल्लभसूरि के गुणों की स्तुति के चाहिये । यथा
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