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अनेकान्त और स्याद्वाद
डॉo चेतन प्रकाश पाटनी (जोधपुर)
( प्रबुद्ध लेखक : विश्वविद्यालय प्राध्यापक )
वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी जिनेन्द्रदेव ने वस्तु-स्वरूप को जानने के लिए लोक को एक मौलिक दिव्य पद्धति प्रदान की है । वस्तु का सर्वांगीण स्वरूप इसी पद्धति से जाना जा सकता है । विचार अनेक हैं, वे बहुत बार परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं परन्तु जिनेन्द्र - निर्दिष्ट पद्धति से परस्पर का यह विरोध समाप्त हो जाता है । यह पद्धति है- विचारों में अनेकान्त और वाणी में स्याद्वाद का
अवलम्बन |
अनेकान्त - इस संधिपद में दो शब्द हैं- अनेक + अन्त । अन्त का अर्थ है- 'अन्तः स्वरूपे, निकटे, प्रान्ते, निश्चयनाशयोः अवयवेऽपि ' इति हैम । अन्त शब्द स्वरूप में, निकट में प्रान्त में निश्चय में, नाश में, मरण में, अवयव में नाना अर्थों में आता है । अनेकान्त में अन्त का अर्थ स्वरूप, स्वभाव अथवा धर्म है ।
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‘अनेके अन्ताः धर्माः सामान्यविशेषपर्यायगुणाः यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः ।' जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्मसामान्य विशेष गुण और पर्याय पाये जाते हैं, उसे अनेकान्त कहते हैं । यानी सामान्यादि अनेक धर्म वाले पदार्थ को अनेकान्त कहते हैं ।
परस्पर विरोधी विचारों में अवरोध का आधार, वस्तु का अनेक धर्मात्मक होना है । हम जिस स्वरूप में वस्तु को देख रहे हैं, वस्तु का स्वरूप उतना ही नहीं है । हमारी दृष्टि सीमित है । जबकि वस्तु का स्वरूप असीम । प्रत्येक वस्तु विराट् है और अनन्तानन्त अंशों, धर्मों, गुणों और शक्तियों का पिण्ड है । ये अनन्त अंश उसमें सत् रूप से विद्यमान हैं । ये वस्तु के सह-भावी धर्म कहलाते हैं । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु द्रव्यशक्ति से नित्य होने पर भी पर्यायशक्ति से क्षण-क्षण में परिवर्तनशील है, यह परिवर्तन अर्थात् पर्याय एक दो नहीं, सहस्र और लक्ष भी नहीं, अनन्त हैं और वे भी वस्तु के ही अभिन्न अंश हैं । ये अंश क्रमभाविधर्म कहलाते हैं । इस प्रकार अनन्त सहभावी और अनन्त क्रमभाविपर्यायों का समूह ही एक वस्तु है ।
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किन्तु वस्तु का स्वरूप इतने में ही परिपूर्ण नहीं होता क्योंकि विधेयात्मक पर्यायों की अपेक्षा भी अनन्तगुणा निषेधात्मक गुण और पर्याय का नास्तित्व भी उसी वस्तु में है । जैसे- - गाय । इस शब्द का
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