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ऊपरी खण्ड पर थे इसलिए उनकी अपेक्षा मैं नीचे था । वस्तुओं की सभी स्थितियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार सोचने से हम सत्य तक पहुँच सकते हैं। भ्रम में नहीं पड़ते। वर्द्धमान की यह व्याख्या सुनकर बालक हैरान रह गये। महावीर स्याद्वाद की बात कह गये ।
स्याद्वाद और अनेकान्त का सम्बन्ध
स्याद्वाद और अनेकान्तवाद में घनिष्ठ सम्बन्ध है । भगवान् महावीर ने इन दोनों के स्वरूप एवं महत्व को स्पष्ट किया है । अनेकान्तवाद के मूल में है - सत्य की खोज | महावीर ने अपने अनुभव से जाना था कि जगत् में परमात्मा अथवा विश्व की बात तो अलग व्यक्ति अपने सीमित ज्ञान द्वारा घट को भी पूर्ण रूप से नहीं जान पाता । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि गुणों से युक्त वह घट छोटा-बड़ा, काला- सफेद, हल्का- भारी, उत्पत्ति-नाश आदि अनन्त धर्मों से युक्त है । पर जब कोई व्यक्ति उसका स्वरूप कहने लगता है तो एक बार में उसके किसी एक गुण को ही कह पाता है । यही स्थिति संसार की प्रत्येक वस्तु की है।
हम प्रतिदिन सोने का आभूषण देखते हैं। लकड़ी की टेबिल देखते हैं । और कुछ दिनों बाद इनके बनतेबिगड़ते रूप भी देखते हैं किन्तु सोना और लकड़ी वही वनी रहती है। आज के मशीनी युग में किसी धातु के कारखाने में हम खड़े हो जायें तो देखेंगे कि प्रारम्भ में पत्थर का एक टुकड़ा मशीन में प्रवेश करता है और अन्त में जस्ता, तांबा आदि के रूप में बाहर आता है । वस्तु के इसी स्वरूप के कारण महावीर ने कहा था प्रत्येक पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता से युक्त है । द्रव्य के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर उन्होंने जड़ और चेतन आदि छः द्रव्यों की व्याख्या की है । मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवलज्ञान आदि पाँच ज्ञानों के स्वरूप को समझाया है । केवलज्ञान द्वारा हम सत्य को पूर्णतः जान पाते हैं ।
अनेकान्तवाद : समन्वय का आधार
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जैन संस्कृति का आलोक
अतः सामान्य ज्ञान के रहते हम वस्तु को पूर्णतः जानने का दावा नहीं कर सकते। जान कर भी उसे सभी दृष्टियों से अभिव्यक्त नहीं कर सकते। इसलिए सापेक्ष कथन की अनिवार्यता है । सत्य के खोज की यह पगडंडी है |
अनेकान्तः सत्य का परिचायक
अनेकान्त-दर्शन महावीर की सत्य के प्रति निष्ठा का परिचायक है । उनके सम्पूर्ण और यथार्थ ज्ञान का द्योतक है । महावीर की अहिंसा का प्रतिबिम्ब है - स्याद्वाद । उनके जीवन की साधना रही है कि सत्य का उद्घाटन भी सही हो तथा उसके कथन में भी किसी का विरोध न हो। यह तभी सम्भव है जब हम किसी वस्तु का स्वरूप कहते समय उसके अन्य पक्ष को भी ध्यान में रखें तथा अपनी बात भी प्रामाणिकता से कहें । स्यात् शब्द के प्रयोग द्वारा यह सम्भव है। यहाँ स्यात् का अर्थ है - किसी अपेक्षा से यह वस्तु ऐसी है ।
विश्व की तमाम चीजें अनेकान्तमय हैं। अनेकान्त का अर्थ है - नाना धर्म। अनेक यानी नाना और अन्त यानी धर्म और इसलिए नाना धर्म को अनेकान्त कहते हैं । अतः प्रत्येक वस्तु में नाना धर्म पाये जाने के कारण उसे अनेकान्तमय अथवा अनेकान्तस्वरूप कहा गया है । अनेकान्तवाद स्वरूपता वस्तु में स्वयं है, - आरोपित या काल्पनिक नहीं है । एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो सर्वथा एकान्तस्वरूप ( एकधर्मात्मक) हो । उदाहरणार्थ यहलोक, जो हमारे और आपके प्रत्यक्ष गोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव इन दो द्रव्यों से युक्त है। वह सामान्य की अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्यों की अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्तमय सिद्ध है।
जो जल प्यास को शान्त करने, खेती को पैदा करने आदि में सहायक होने से प्राणियों का प्राण है / जीवन है,
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