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________________ दी । भरत के आनंद की सीमा न रही। वे माता मरुदेवा के पास पहुंचे। कहा- 'दादी मां, आज आपके पुत्र वियोग का अन्त हो जाएगा। अब चलिए तैयार हो जाइए। भगवान ऋषभदेव के दर्शन के लिए आपको ले चलता हूं।' माता मरुदेवा तैयार हो गई । भरतजी और वे दोनों हाथी पर बैठ कर प्रभु के दर्शन के लिए चल पड़े। प्रभु के समवसरण के निकट पहुंचे तो देवदुन्दुभी और भगवान की दिव्य वाणी का अपूर्व संगीत उन्हें सुनाई दिया। माता ने पूछा- 'भरत, इतना मधुर संगीत कहां बज रहा है ।' भरत ने कहा- 'दादी मां, यह आपके पुत्र की महिमा है । वे मणि रचित सिंहासन पर बैठे हुए हैं। सैंकड़ों देव, मनुष्य, पशु और पक्षी उनकी दिव्य वाणी का रसास्वादन कर रहे हैं।' 'मेरे पुत्र आदिनाथ इतने वैभव के बीच जी रहे हैं। उनकी वाणी इतनी दिव्य है। मैं तो व्यर्थ ही उनका वियोग करती थी। इन्हें तो यहां कोई कष्ट नहीं है । इन्द्र आदि देव उनकी सेवा में उपस्थित हैं। मुझे इन्होंने बुलाया क्यों नहीं ? अरे कोई संदेश ही भेज देते । माता की आंखों से हर्ष के आंसू बहने लगे । इतने में वे समवसरण के सामने पहुंचे । माता ने अपने पुत्र को देखा तो दंग रह गई। प्रभु की अस्खलित वाक्धारा बह रही थी । माता ने उस दिव्य वाणी को सुनने का प्रयत्न किया । ये मेरे आदिनाथ क्या कह रहे हैं, जरा ध्यान से सुनूं तो । वे कान देकर सुनने लगी । भगवान आदिनाथ की दिव्य वाणी हवा में तैरती हुई आ रही थी ‘संसार के समस्त सम्बन्ध अनित्य और अस्थिर हैं । संसार का सुख और वैभव क्षणभंगुर है और मनुष्य को वियोग देने वाला । शाश्वत केवल आत्मा है, जो अजर और अमर है । मनुष्य को शाश्वत सुख शाश्वत की आराधना और साधना करने पर ही मिल सकता है।' 1 भगवान आदिनाथ की इस वाक् धारा ने माता मरुदेवा के भीतर के द्वार खोल दिए । उनकी वाणी माता के हृदय में उतर गई। मेरे आदिनाथ जो यह कह रहे हैं कि संसार के समस्त सम्बन्ध अनित्य और अस्थिर है, सत्य कह रहे हैं। यहां कौन किसका बेटा है और कौन किस की माता । यह संयोग-मिलन कब टूट जाएगा, कोई पता नहीं । मैंने व्यर्थ ही अपने पुत्र के वियोग में आंसू बहाए । न आदिनाथ मेरे पुत्र हैं, न उनकी माता हूं। मैं तो इन सम्बन्धों से भिन्न एक स्वतंत्र आत्मा हूं । मेरी आत्मा तो अजर और अमर है । आत्मा ही परमात्मा है और वही शाश्वत है, माता की विचारधारा आगे बढ़ती चली गई । अनित्य भावना की चरम सीमा आ पहुंची और उन्हें वहीं हाथी के ऊपर केवलज्ञान हो गया। अनित्य भावना Jain Education International For Private & Personal Use Only ४३ www.jainelibrary.org
SR No.210036
Book TitleAnitya Bhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndradinnasuriji
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size994 KB
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