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________________ भरत- ‘दादी मां, दीक्षा किसी बात की कमी होने पर नहीं ली जाती । यह तो वैराग्य होने पर ग्रहण की जाती है । उन्हें यह सुख यह वैभव वास्तविक नहीं लगा। उन्हें इनसे वैराग्य हो गया है । इसलिए उन्होंने यह सब छोड़ दिया है । और मेरे रोकने से वे रुकनेवाले नहीं थे। जिन्हें संसार से सच्चा वैराग्य हो जाता है, वे किसी के रोकने से नहीं रुकते।' माता मरुदेवा को ये वैराग्य की बातें समझ में नहीं आई । पुत्र वात्सल्य से भरा उनका मृदु हृदय न कोई तर्क सुनना चाहता था, न कोई वैराग्य की बात । उनकी वृद्धा आंखें पुत्र आदिनाथ को देखने के लिए तरसने लगीं। उन्होंने भरत से कहा- 'भरत, पुत्र आदिनाथ को जहां कहीं भी हो उन्हें बुला लाओ, अगर तुम उन्हें नहीं बुला सकते तो मुझे उनके पास ले चलो। महाराजा भरत आदिनाथजी को न बुला सकते थे, न दादी मां को उनके पास जंगल में ले जा सकते थे। उन्होंने कहा- 'दादी मां, ये दोनों ही बातें असंभव है। आप कुछ वर्ष और धीरज रखिए । उन्हें केवलज्ञान होगा, तब आपको उनके पास ले चलूंगा।' माता मरुदेवा विवश और लाचार थीं। पुत्र की स्नेहिल स्मृति को संजोकर रखने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं था । वे पुत्र वियोग में रोने लगीं। उनका वियोगी मातृ हृदय क्षणभर भी पुत्र को विस्मृत नहीं करता था। पुत्र वियोग में उनके आंसू रुकते नही थे । मेरा आदिनाथ मेरा आदिनाथ, की रटन हर क्षण उनके मुख में होती थी। सभी उन्हें समझाने का प्रयत्न करते थे, पर कोई उन्हें समझा नहीं पाता था। - मेरे आदिनाथ जंगल में भूखे-प्यासे अकेले भटक रहे होंगे । न खाने के लिए अन्न, न सोने के लिए पलंग, न पहनने के लिए वस्त्र, न काम करने के लिए नौकर । वे वहां कितने दुःखी होंगे। इस प्रकार की कल्पना करके माता मरुदेवा रोती थीं। बार-बार भरत से कहती 'अब तो ले चलो, अब तो ले चलो।' पर भरतजी हर बार टाल देते थे। वे भगवान आदिनाथ को केवलज्ञान होने का शुभ समाचार सुनने के आतुर थे। घोर तपश्चर्या के बाद जब कर्म क्षय हो गए तो भगवान आदिनाथ को पूरीमताल नाम के नगर के पास जो एक छोटा सा वन था, उस वन के बरगद के नीचे उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। वे इस काल के प्रथम केवलज्ञानी हुए। उसके बाद देवों ने समवसरण की रचना की । भगवान आदिनाथ समवसरण के सिंहासन पर आसीन हुए। उनकी देशना (उपदेश) प्रारंभ हुई । एक सेवक ने आकर महाराजा भरत को भगवान आदिनाथ के केवलज्ञान की शुभ सूचना श्री विजयानंद सूरि स्वर्गारोहण शताब्दी ग्रंथ ४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210036
Book TitleAnitya Bhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIndradinnasuriji
PublisherZ_Vijyanandsuri_Swargarohan_Shatabdi_Granth_012023.pdf
Publication Year
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size994 KB
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