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श्री ज्ञान भारिल्ल, एम० ए० अनन्य और अपराजेय जैनदर्शन
जैनदर्शन इस विश्व में आज तक प्रचलित और प्रतिपादित हुए समस्त दर्शनों में अद्भुत, अनन्य और अपराजेय है. इस संसार का वह सर्वश्रेष्ठ दर्शन है. इस कथन की सत्यता उन सुधी और धैर्यवान् पाठकों के समक्ष स्पष्ट हुए विना नहीं रह सकती जो वास्तव में सत्य के अन्वेषी हैं और जो तटस्थ भाव से, किसी भी पूर्वाग्रह से रहित होकर जैनदर्शन के विषय में जानना चाहते हैं. इससे पूर्व कि हम इस निबन्ध में जैनदर्शन की उन विशेषताओं पर विचार करें जो अन्य किसी भी दर्शन में हमें देखने को नहीं मिलतीं, इतना स्पष्ट कर देना अनिवार्य है कि हमारी इस विचारणा के पीछे शुद्ध सत्य और वास्तविकता के ज्ञान की भावना ही है, किसी अन्य धर्म के प्रति उपेक्षा या ईर्ष्या का लेश मात्र भी नहीं है. एक-एक तथ्य जो इस निबन्ध में प्रस्तुत किया जा रहा है, उसे देख कर पाठक स्वयं भी ऐसा ही अनुभव करेंगेऐसा हमारा विश्वास है. कभी-कभी एक विचित्र प्रश्न पूछा जाता है. यदि जैनदर्शन ऐसा श्रेष्ठ है, इतना सम्पूर्ण दर्शन है, तो फिर उसका अनुसरण करनेवाले व्यक्तियों की संख्या इतनी कम क्यों है ? इस प्रश्न का उत्तर सीधा और स्पष्ट है. मनुष्य का स्वभाव है कि वह कठिनाई से बचना चाहता है और सरल मार्ग पर चल निकलता है. आज के इस स्व-केन्द्रित भौतिक युग में तो यह प्रवृत्ति अपने चरम-बिन्दु पर है. आज का भौतिकवादी मनुष्य-समाज अपने लिए और इस संसार के इस जीवन के लिए सारी सुख-सुविधाएँ बटोर लेना चाहता है और उसमें अपने जीवन की चरम सार्थकता समझता है, जब कि जैनदर्शन, स्वार्थ से परे परमार्थ और सत्य की ओर दृष्टि रखता है, मनुष्य को त्याग के मार्ग की ओर संकेत करता है और भौतिक नहीं, आध्यात्मिक सुख प्रदान करने का मार्ग है. यही कारण है कि आज जैनदर्शन के अनुयायियों की और जैनदर्शन को समझने और स्वीकार करनेवालों की संख्या न केवल कम है, बल्कि प्रतिदिन कम होती जा रही है. यह असमर्थता, अयोग्यता और दुर्भाग्य आज के भौतिकवादी मनुष्य का है,—दर्शन अथवा धर्म की स्थिति इससे परिवर्तित नहीं होती. बल्कि इससे यही प्रमाणित होता है कि यह दर्शन कोई काम चलाऊ दर्शन नहीं, हमारे सांसारिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए ओढ ली गई कोई बनावटी नकाब नहीं—यह वह ठोस, दृढ़ और अचल आधार है जिसके सहारे आगे बढ़कर और ऊपर चढ़कर हम अपने वास्तविक और अन्तिम लक्ष्य-आध्यात्मिक विकास और सम्पूर्ण आत्मविशुद्धि तक पहुँच सकते हैं. और यह चित्र तो आज की स्थिति का है, जब कि मनुष्य विगत कुछ शताब्दियों से धीरे-धीरे किन्तु स्पष्ट रूप से अवनति की ओर बढ़ा है, जहाँ तक मानवोचित गुणों का सम्बन्ध है. विज्ञान और सभ्यता ( जिसे आज सभ्यता कहा जाता है, की दृष्टि से वह चाहे स्वयं को आगे बढ़ा समझे, किंतु मानवता के जो महान् और स्वाभाविक और स्थायी गुण हैं उनकी दृष्टि से आज के युग का मानव पीछे की ओर ही चला है, कमजोर और अयोग्य ही हुआ है. लेकिन वह भी युग था जब मनुष्य भौतिक स्वार्थों में इस तरह और इतना लिप्त नहीं था. और तब वह अपनी आत्मा को आज से अधिक
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