________________ दिव्य तपोधन श्री जसराजजी महाराज 137 था। जाति से औसवाल थे। आपका पाणिग्रहण एक सुरूपा बाला सरस्वती से सम्पन्न हुआ। आचार्य श्री अमरसिंहजी महाराज के प्रशिष्य कोजूरामजी महाराज थे और उनके शिष्य रामपहचानजी महाराज थे। उनके पावन प्रवचन को श्रवण कर आपके अन्तर्मानस में वैराग्य भावना प्रबुद्ध हुई और आपने उनचास वर्ष की वय में संवत् 1926 (सन् 1866) में गृहस्थाश्रम का परित्याग कर आर्हती दीक्षा ग्रहण की। और उन्हीं के चरणों में बैठकर जैन आगमों का गहन अध्ययन किया। आगमों का अध्ययन करते समय जैन श्रमण व श्रमणियों के उग्र तप का वर्णन पढ़ते ही आपका तपस्या के प्रति जो स्वाभाविक अनुराग था वह प्रस्फुटित हो गया और आपने तप के कठोर कण्टकाकीर्ण महामार्ग की ओर अपने मुस्तैद कदम बढ़ाये।। सवासोलह वर्ष तक संयम-साधना, आत्म-आराधना करते हुए आपने जो तप किया उसका वर्णन आपके एक शिष्य ने भक्तिभाव से विभोर होकर पद्य रूप में अंकित किया है जिसे पढ़ते ही धन्ना-अनगार का स्मरण हो आता है। उन्होंने पारणे में सरस आहार का त्याग कर दिया था। वे नीरस और अल्पतम आहार ग्रहण करते थे। आश्चर्य तो यह है उन्होंने सवा सोलह वर्ष में केवल पाँच वर्ष ही आहार ग्रहण किया। उन्होंने अट्ठाई तप से अधिक जो तप किया उसका वर्णन इस प्रकार मिलता है : तपोदिन 62 60 52 51 45 42 41 30 24 21 20 16 15 12 10 8 तप 1 2 1 1 5 2 1 17 4 2 2 1 6 2 8 1515 PH संवत् 1642 (सन् 1885) में आपश्री जोधपुर पधारे। वृद्धावस्था तथा उग्रतप के कारण शरीर शिथिल हो चुका था / अत: आपश्री ने संलेखनापूर्वक संथारा किया। श्रद्धालु लोगों ने इनकारी की। किन्तुं आपका आत्म-तेज इतना तीव्र था कि आपने कहा-आपका मेरे प्रति मोह है, किन्तु मुझे जीवन को निर्मल बनाना है। अत: मैं संथारा करूंगा। संथारे में आपकी भावना उत्तरोत्तर निर्मल होती रही और 71 दिन के सन्थारे के पश्चात् आपका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ। तप के कारण आपको अनेक सिद्धियाँ भी प्राप्त हुई थीं। किन्तु आपके तपश्चरण का एक उद्देश्य था कर्म निर्जरा करना, आत्मा को उज्ज्वल और परम शुद्ध बनाना / न चाहते हुए भी तपस्वी को सहज सिद्धियाँ मिल जाती हैं। आप वचनसिद्ध थे। आपश्री की चरणधूलि के स्पर्श से अनेक व्यक्ति भयंकर रोगों से मुक्त हो जाते थे। आपके साधनामय जीवन की अनेक अनुश्रुतियाँ हैं, किन्तु कभी अवकाश के क्षणों में उन अनुश्रुतियों पर लिखने का सोचता हूँ। [नोट-अष्टम खण्ड के अब तक के सभी निबन्धों के लेखक हैं-श्री देवेन्द्रमुनि शास्त्री। सन्दर्भ एवं सन्दर्भ-स्थल 1 तापयति अष्ट प्रकारं कर्म-इति तपः / -आवश्यक मलयगिरि, खण्ड 2, अध्ययन 1. 2 'तप्यते अणेण पावं कम्ममिति तपो।' -निशीथचूणि 46 3 रसरुधिर मांस मेदाऽस्थि मज्जा शुक्राण्यनेन तप्यन्ते, कर्माणि वाऽशुभानीत्यतस्तपो नाम निरुक्तः / -स्थानांगवृत्ति 5 4 तपो में प्रतिष्ठा / -तैत्तिरीय ब्राह्मण 3/7/70 5 श्रेष्ठो हि वेदस्तपसोऽधिजातः / -गोपथ ब्राह्मण 1/1/8 6 ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत / -अथर्ववेद 11/5/16 7 तपो ब्रह्म ति। -तैत्तिरीय आरण्यक 6/2 8 सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यष आत्मा / -मुण्डक उपनिषद् 3/1/5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org