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अजैन नाटककारों के हिन्दी नाटकों में जैन समाज दर्शन को अवधारणा डा. लक्ष्मीनारायण दुबे हिन्दी-विभाग, सागर विश्वविद्यालय
जैन समाज दर्शन की कतिपय आधुनिक हिन्दी नाटककारों ने स्वीकार किया है और जैनदर्शन के सिद्धान्तों के आधार पर नाटकों के माध्यम से एक नवीन समाजसंरचना की अवधारणा प्रस्तुत की है। जैन-चिन्तन की समृद्ध तथा सुदीर्घ परम्परा के सामाजिक पक्ष को उपस्थित करने में कुछ अजैन नाटककारों ने सम्यक एवं श्रेष्ठ कार्य किया है । ये नाटक प्रमाणित करते है कि नूतन समाज-विधान की कल्पना यहाँ प्रामाण्य है। किसी भी वैचारिक परम्परा द्वारा दिये गये आदर्शों को प्राप्त करने के लिए एक विशेष प्रकार के समाज की भी आवश्यकता होती है। जैन आदर्शों के अनुरूप जिस समाज की जरूरत है उन्हें हिन्दी नाटकों में प्रतिपादन मिला है। हिन्दी नाटकों में यत्र-तत्र बिखरे समाज दर्शन के तत्त्वों को एकत्र कर जैन समाज सम्बंधो कतिपय सिद्धान्तों की विवेचना की जा सकती है ।
वर्तमान युग में समाजदर्शन की अधिक महत्ता दी जा रही है। जब हम हिन्दी नाटकों का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते है तो हमारे समक्ष सुस्पष्ट रूप में, मलाधार के तौर पर, जैन दर्शन भी उभरने लगता है। समाज सम्बंधी समस्याओं पर इन नाटकों में जो मनन और समाधान मिलता है-उसे जैन-चिंतन के परिप्रेक्ष्य में निरखा. परखा जा सकता है।
जैन-चिंतन में सत्य और अहिंसा को अपरिहार्य महत्व प्राप्त है। इन्हें श्रमण संस्कृति की अप्रतिम देन के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। इस युग में जब समस्त विश्व दो महायुद्धों में प्रयुक्त वैज्ञानिक उपकरणों से त्रस्त था तब सत्य और अहिंसा के सिद्धान्त को, विश्व में शांति उत्पन्न करने के लिए, समस्त संसार के सामने प्रस्तुत किया गया । इसमें महात्मा गांधी की अहम् एवं ऐतिहासिक भूमिका रही है जो कि स्वयं जैनदर्शन से प्रभावित थे । इस सिद्धान्त का प्रभाव इस युग के नाटककारों पर भी व्यापक रूप से पड़ा और उन्होंने इस विचार को अपने नाटकों में विवेचित किया । सेठ गोविन्ददास के 'विकास' नाटक में यही प्रतिपादित किया गया है कि समूची दुनिया में जो पाशविकता का साम्राज्य आच्छादित है, उसमें सत्य और अहिंसा के द्वारा ही विश्वशांति स्थापित हो सकती है, तभी मानव सुख से जीवन व्यतीत कर सकता है । आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने 'मेघनाद' नाटक में सत्य की विजय दिखलाई है । अहिंसा की दृष्टि से राधेश्याम कथावाचक के 'महर्षि वाल्मीकि', उपेन्द्रनाथ 'अश्क' के 'छटा बेटा' और उदयशंकर भट्ट के 'मुक्तिदूत' के दृष्टान्त विशेष रूप से उल्लेखनीय है । 'मुक्तिदूत' नाटक में यज्ञ में बलि का विरोध है । जयशंकर 'प्रसाद' ने 'अजातशत्रु' में अहिंसा धर्म की गरिमा की ओर अधिक ध्यान दिया है । लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने 'वत्सराज' नाटक में श्रमण को भी कर्मयोग में दीक्षित किया है।
सेठ गोविन्ददास के 'अशोक', विष्णु प्रभाकर के 'नवप्रभात', आचार्य चतुरसेन शास्त्रो के 'धर्मराज', डा० राजकुमार वर्मा के 'विजय पवं' एवं 'कला और कृपाण' आदि नाटकों में अहिंसात्मक दृष्टिकोण का आकलन किया गया है । आज विज्ञान की बढ़ती हुई शक्ति से मानव त्रस्त है और वह भविष्य में होने वाले तृतीय विश्वयुद्ध से भयभीत है । आज का व्यक्ति और समाज इस चिता में हैं कि किसी प्रकार इस तीसरे महासमर का खतरा टल जाय और मानव शांतिपूर्वक जीवन व्यतीत करे । बीसवीं शताब्दी की साम्राज्य-लिप्सा ने समस्त मानवता को त्रस्त कर दिया है । शास्त्र ही शक्ति का एकमात्र अवलम्ब है और उसके संघर्ष से मनुष्यता घायल होकर सिसक रही है। इसका एकमात्र उपाय यदि कोई है तो वह अहिंसा है । आज भी भारत अपनी विदेश नीति में अहिंसात्मक दृष्टिकोण को विशेष स्थान दे रहा है ।
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