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नीतिसागर, १९६६ में दानसागर, मोहनसागर, उम्मेदसागर, १९६५ में धर्मसागर, १९७१ में सुमतिसागर, १९८२ में क्षांतसागर, २००३ में विवेकसागर, २००४ में अमरेन्द्रसागर, २००५ में भद्र करसागर, २००६ में प्रेमसागर थे । जिन साधुनों ने आपकी आज्ञा स्वीकार की उनमें वि. सं. १९५८ में मुनिदयासागर, १९६६ में रविसागर, कपूरसागर, भक्तिसागर थे । श्रापके कई साधु शिष्यों से कई व्यक्तियों ने जैन साधुत्व स्वीकार कर दीक्षा ली ।
जैन समाज का विधिपक्ष (अचलगच्छ ) जिसमें साधु साध्वियां नगण्य सी थीं आपने इस क्षेत्र में अनुकरणीय कार्य कर इस गच्छ को पुनर्जीवित करने में महान् योगदान दिया । आपके साधु-शिष्य समाज ने अनेकों साधु साध्वीयों को भी आपकी मौजूदगी में दीक्षित करने का सफलीभूत प्रयास किया। वर्तमान अचलगच्छाधिपति कच्छकेशरी, प्राचार्य श्री गुणसागरसूरीश्वरजी महाराज साहब भी आपके आज्ञाकारी शिष्य श्री नीतिसागरजी महाराज के शिष्य बने ।
वि. सं. १९४९ में पक्की दीक्षा लेने के पश्चात् श्री गौतमसागरजी महाराज साहब अपने अनेकों साधु साध्वियों सहित जामनगर में १७, भुज एवं सुथरी में सात-सात, गोधरा में ६, पालीतरणा एवं नालीया में चारचार बम्बई, मोटी खावड़ी, मांडवी में तीन-तीन, मांडल में दो एवं देवपुर, सांयरा, तेरा, वराडीया, प्रासंबी, मुकुंदरा में क्रमशः एक-एक चातुर्मास कर आपने जैन धर्म के सिद्धान्तों के व्यापक प्रचार करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया । चातुर्मासों के दौरान अनेकों साधु साध्वियों को दीक्षा देने के साथ-साथ जनसाधारण को अनेकों नियमों का प्रतिबोध देते रहे । आपकी मधुरवाणी, सत्य भाषण, प्रखरबुद्धि, तेजस्वी विचारधारा के कारण जहां कहीं पर भी आपका प्रवचन होता जनमानस की भीड़ उमड़ पड़ती थी। जैन संगठन शक्ति के तो ग्राप प्राण ही थे। जहां कहीं पर भी आपका विचरण हुआ जैन समाज ने अनेकों रचनात्मक एवं धार्मिक कार्य करवाने का सौभाग्य प्राप्त किया ।
महान तेजस्वी, गुरणों की खान, ज्ञान के धनी, संगठन शक्ति के देवता रूप में आपकी यश कीर्ति चारों ओर फैलने लगी। उस समय अंधविश्वास एवं विलासिता में डूबे धर्म प्रचारकों ने तोड़ने की जीतोड़ कोशिश की। कुछ साधु साध्वियां प्रापके संगठन से अवश्य ही मंजिल नहीं मिली । अंधविश्वास, रूढ़ियों, कुरीतियों एवं विलासिता में लताड़ देने में नहीं चूकते थे । प्रापने सदैव सादा जीवन और उच्च तपस्या पर हमेशा आपका जोर रहा। जिसके कारण ही आपकी ओर जनमानस का झुकाव रहा ।
आपके साधु साध्वी संगठन को
अलग रही लेकिन उन्हें अपनी खोये धर्म प्रचारकों को भी आप समय पर विचार रखने पर बल दिया । त्याग और
धर्म प्रचार के साथ विधिपक्ष (अचलगच्छ ) को मजबूत बनाने के साथ-साथ आपने अपनी देख रेख एवं प्रेरणा से अनेकों धार्मिक प्रतिष्ठानों, मन्दिरों आदि का नव निर्माण, जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा आदि करवाई । वि. सं. १९५२ में नारायणपुर, १९५८ में नवागाम, १९६२ में बंढी, १९७८ में देवपुर, १९८४ में पडाणा, १९९२ में मोडपुर, १९९७ में नलीया, १९९८ में लायजा, २००७ में रायण एवं २००८ में गोधरा में मन्दिरों का निर्माण, प्रतिष्ठा, स्वर्ण महोत्सव, जीर्णोद्धार आदि करवा कर आपने भारतीय पुरातत्व एवं इतिहास की नई कड़ी को जोड़ने का प्रयास किया। आपश्री के उपदेशों से मांडवी, तेरा, जामनगर, गढशीशा, अंजार, मोटा आसंबीचा, सुथरी, जखीय वंदर, शाहेरा, जशापुर, वराडीया, लाला, बारापघर, शाधांण, दोरण, कोटड़ी, हालापुर, देढीया, कोटड़ा,
શ્રી આર્ય કલ્યાણૌતમ સ્મૃતિગ્રંથ
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