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अकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवार्तिक का सम्पादन-कार्य : एक समीक्षा
• डॉ० फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मयकी गौरववृद्धि में जहाँ जैन वाङ्मयका अप्रतिम योगदान है, वहीं इस महत्त्वपूर्ण अपूर्व विशाल जैन साहित्यके सृजनमें सहस्रों आचार्यों, विद्वानों आदि मनीषियोंकी दीर्घकालसे चली आ रही लम्बी परम्पराका जब स्मरण करते हैं, तो हमारा हृदय उनके प्रति कृतज्ञतासे गद्गद हो जाता है । उस समयकी विविध कठिन, प्रतिकूल परिस्थितियाँ, अनेक उपसर्गों, विपुल कष्टोंका सद्भाव और आज जैसी सुख-सुविधाओं, अनुकूलताओंका उस समय सर्वथा अभाव होने के बावजूद इतने विशाल सृजनात्मक साहित्यनिर्माणके महान् उद्देश्यको देखते हैं तो अनुभव होता है कि उन्हें मात्र इस देशकी ही नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्वके कल्याणकी कितनी उत्कट अभिलाषाने उन्हें साहित्य-सृजनकी प्रेरणा दी होगी।
प्रस्तुत प्रसंगमें हम यहाँ उस लंबी परम्पराकी नहीं, अपितु बीसवीं शतीके मात्र उस महान् सपूतके कृतित्वकी चर्चा कर रहे हैं जिसने बुन्देलखण्डकी खुरई (सागर जिला) नगरीमें सन् १९११ में जन्म लेकर २०
ई १९५९ तकके मात्र ४८ वर्षोंके जीवन में जैनधर्म-दर्शन, न्याय तथा अन्यान्य विधाओंके ऐसे अनेक प्राचीन, दुरूह, दुर्लभ और क्लिष्ट ग्रन्थोंका सम्पादन करके उद्धार किया, जिनमें सम्पूर्ण भारतीय मनीषाके तथ्य समाहित है। ऐसे वे महामनीषी विद्यानगरी वाराणसीके स्व० डॉ०५० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य, जिन्होंने सातवीं शतीके महान् जैन तार्किक आचार्य अकलंकदेवके प्रायः सम्पूर्ण वाङ्मय और उसपर लिखित व्याख्या साहित्यका वैज्ञानिक ढंगसे श्रेष्ठ सम्पादन कार्य करके आचार्य अकलंकदेवके साहित्य उद्धारकर्ता विशेष पहचान बनाई है।
वस्तुतः इस बीसवीं शतीके आरम्भिक छह-सात दशकोंका समय ही ऐसा था, जबकि बहुमल्य दुर्लभ जैन-साहित्यके पुनरुद्धारकी कठिन जुम्मेदारीका अलग-अलग क्षेत्रों एवं विषयोंमें बीड़ा उठाकर जैन विद्वानोंने अपनी अलग-अलग विशेष पहचान बनाई है। जैसे-आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसारके अध्ययन-अध्यापन और स्वाध्यायकी परम्पराको पुनः लोकप्रिय बनानेका प्रमुख श्रेय गुरुणां गुरु पं० गोपालदास जी वरैयाको है । प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश और हिन्दोके अनेक शास्त्रोंका शास्त्र-भण्डारोंसे खोजबीन एवं उनका उचित मल्यांकन करके इन भाषाओंके अनेक शास्त्रोंके उद्धारकर्ता एवं जैन साहित्यके इतिहास-लेखकके रूपमें पं० नाथूरामजी प्रेमीने सम्पूर्ण देशमें अपनी विशेष पहचान बनाई थी। वहीं आचार्य समन्तभद्र और उनके सम्पूर्ण अवदानको सामने लानेका प्रमुख श्रेय आचार्य पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारको है । आचार्य कुन्दकुन्ददेवके बहुमूल्य चिन्तन और उनके अवदानपर कार्य करनेवाले इसी शतीके पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी, पज्य कानजी स्वामी आदि अनेक विद्वानोंकी लंबी परम्परा है, किन्तु उन्हें मात्र धार्मिक या आध्यात्मिक दष्टिसे ही नहीं, अपितु उनके बाद बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्वका अनुसंधानपरक दृष्टिसे मल्यांकन करने के लिए सभीको प्रेरित करनेका प्रमुख श्रेय महामनीषी डॉ० ए० एन० उपाध्येको है। डॉ० हीरालालजी जैन एवं ए. एन. उपाध्ये द्वारा अनेक ग्रन्थोंका सम्पादन एवं उनकी अंग्रेजी भाषामें लिखित विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनाओंके रूपमें इन दोनों विद्वानोंका योगदान विशेष प्रसिद्ध है।
__ आगमिक सिद्धान्त ग्रन्थों में मुख्यतः अनेक खण्डोंमें कसायपाहुडकी जयधवला टीका और षट्खण्डागमकी धवला टीका तथा आ० पूज्यपाद विरचित सर्वार्थसिद्धिका सुसम्पादन और अनुवाद जैसे महान् कार्यों में
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