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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ७१ स्यादस्ति-अवक्तव्य आदि तीन भंग परमतकी अपेक्षा भी इस तरह लगाये जाते हैं कि--अद्वैतवादियोंका सन्मात्र तत्व अस्ति होकर भी अवक्तव्य है, क्योंकि केवल सामान्यमें वचनकी प्रवृत्ति नहीं होती। बौद्धोंका अन्यापोह नास्तिरूप होकर भी अवक्तव्य है; क्योंकि शब्दके द्वारा मात्र अन्यका अपोह करनेसे किसी विधिरूप वस्तुका बोध नहीं हो सकेगा । वैशेषिकके स्वतन्त्र सामान्य और विशेष अस्ति-नास्ति रूप-सामान्य विशेष रूप होकर भी अवक्तव्य-शब्दके वाच्य नहीं हो सकते; क्योंकि दोनोंको स्वतन्त्र माननेसे उनमें सामान्य-विशेषभाव नहीं हो सकेगा। सर्वथा भिन्न सामान्य और विशेष शब्दकी प्रवृत्ति नहीं होती और न वैसी हालतमें कोई अर्थक्रिया ही हो सकती है। सकलादेश-विकलादेश--इन भंगोंका प्रयोग दो दृष्टियोंसे होता है--१-सकलादेशदृष्टि, जिसे स्याद्वादशब्दसे भी व्यवहृत किया गया है और यही प्रमाणरूप होती है । २-विकलादेशदृष्टि, इसे नय शब्दसे कहते हैं । एक धर्मके द्वारा समस्त वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करनेवाला सकलादेश है तथा उसी धर्मको प्रधान तथा शष धर्मोंको गौण करनेवाला विकलादेश है। स्याद्वाद अनेकान्तात्मक अर्थको ग्रहण करता है, जैसे 'जीवः' कहनेसे ज्ञानदर्शनादि असाधारण गुणवाले, सत्त्व-प्रमेयत्वादि साधारण स्वभाववाले तथा अमतत्व-असंख्यातप्रदेशित्व आदि साधारणासाधारण-धर्मशाली जीवका समग्र भावसे ग्रहण हो जाता है। इसमें सभी धर्म एकरूपसे गृहीत होते हैं अतः यहाँ गौण-मुख्यविवक्षा अन्तर्लीन हो जाती है। विकलादेश-नय एक धर्मका मुख्यतया कथन करता है । जैसे 'ज्ञो जीवः' कहनेसे जीवके ज्ञानगुणका मुख्यतया बोध होगा तथा शेषधर्म गौणरूपसे उसीके गर्भ में प्रतिभासित होंगे । एक धर्मका मुख्यतया बोध करानेके कारण ही वह वाक्य विकलादेश या नय कहा जाता है। नयमें भी स्यात् पदका प्रयोग किया जाता है और वह इसलिए कि-शेषधर्मोकी गौणता उसमें सूचित होती रहे, उनका निराकरण न हो जाय । इसीलिए स्यात्पदलाञ्छित नय सम्यक् नय कहलाता है। 'स्याज्जीव एव' यह वाक्य अनन्तधर्मात्मक जीवका अखण्डभावसे बोध कराता है, अतः यह सकलादेशवाक्य है। 'स्यादस्त्येव जीवः' इस वाक्यमें जीवके अस्तित्व धर्मका मुख्यतया कथन होता है अतः यह विकलादेशात्मक नयवाक्य है। तात्पर्य यह कि सकलादेशमें धमिवाचक शब्दके साथ एवकारका प्रयोग होता है और विकलादेशमें धर्मवाचक शब्दके साथ । अकलंकदेवने राजवार्तिकमें दोनों वाक्योंका ‘स्यादस्त्येव जीवः' यही उदाहरण दिया है और उनकी सकल-विकलादेशता समझाते हुए लिखा है कि--जहाँ अस्ति शब्दके द्वारा सारी वस्तु समग्रभावसे पकड़ ली जाय वहाँ सकलादेश, तथा जहाँ अस्तिके द्वारा अस्तित्वधर्ममुख्यक एवं शेषानन्तधर्मगौणक वस्तु कही जाय वह विकलादेश समझना चाहिए। इस तरह दोनों वाक्योंमें यद्यपि समग्र वस्तु गृहीत हुई पर सकलादेशमें सभी धर्म मुख्यरूपसे गृहोत हुए हैं जब कि विकलादेशमें एक ही धर्म मुख्यरूपसे गृहीत हुआ है । यहाँ यह प्रश्न सहज ही उठ सकता है कि-'जब सकलादेशका प्रत्येक भंग समग्र वस्तुका ग्रहण करता है तब सकलादेशके सातों भंगोंमें परस्पर भेद क्या हुआ ?' इसका उत्तर यह है कि--यद्यपि सभी धर्मोंमें पूरी वस्तु गहीत होती है सही, पर स्यादस्ति भंगमें अस्तित्व धर्मके द्वारा तथा स्यान्नास्ति भंगमें नास्तित्व धर्मके द्वारा। उनमें मुख्य-गौणभाव भी इतना ही है कि जहाँ अस्ति शब्दका प्रयोग है वहाँ मात्र ‘अस्ति' इस शाब्दिक प्रयोग हीकी मुख्यता है धर्मकी नहीं। शेषधर्मोकी गौणताका तात्पर्य है उनका शाब्दिक अप्रयोग। ___ इस तरह अकलंकदेवने सातों ही भंगोंको सकलादेश तथा विकलादेश कहा है । सिद्धसेनगणि आदि अस्ति, नास्ति तथा अवक्तव्य इन तीन भंगोंको एकधर्मवाली वस्तुको ग्रहण करनेके कारण विकलादेश तथा शेष भंगोंको अनेकधर्मवाली वस्तु ग्रहण करनेके कारण सकलादेश कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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