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________________ ६४ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ कल्पना अभेद या भेद दो ही रूपसे की जा सकती है । उस कल्पनाका प्रकार चाहे कालिक, दैशिक या स्वारूपिक कुछ भी क्यों न हो। इन दो मल आधारोंको द्रव्यनय और पर्यायनय नामसे व्यवहृत किया है । देश, काल तथा आकार जिस किसी भी रूपसे अभेद ग्रहण करनेवाला द्रव्याथिक नय है तथा भेदग्राही पर्यायार्थिक नय है। इन्हें मलनय कहते हैं। क्योंकि समस्त विचारोंका मल आधार यही दो नय होते है। नैगमादि नय तो इन्हींकी शाखा-प्रशाखाएँ है। द्रव्यास्तिक-पर्यायास्तिक, निश्चय-व्यवहार, शुद्धनय-अशुद्धनय आदि शब्द इन्हींके अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। चूंकि नैगमनय संकल्पमात्रग्राही है, तथा संकल्प या तो अर्थके अभेद अंशको विषय' करता है या भेद अंशको । इसीलिए अभेदसंकल्पी नैगमका संग्रहनयमें तथा भेदसंकल्पी नैगमका व्यवहारनयमें अन्तर्भाव करके आचार्य सिद्धसेनने नैगमनयको स्वतन्त्र नय नहीं माना है । इनके मतसे संग्रहादि छह ही नय हैं। अकलंकदेवने नैगमनयको अर्थनय मानकर ऋजुसूत्र पर्यन्त चार नयोंका अर्थनयरूपसे तथा शब्द आदि तीन नयोंका शब्दनयरूपसे विभाग किया है। नय तथा दुर्नयका निम्न लक्षण समझना चाहिए-भेदाभेदात्मक, उत्पादव्ययधौव्यरूप, समान्यविशेषात्मक पदार्थ अखण्ड रूपसे प्रमाणका विषय होता है। उसके किसी एक धर्मको मुख्य तथा इतरधर्मोंको गौणरूपसे वियय करनेवाला ज्ञाताका अभिप्राय नय कहलाता है। जब वही अभिप्राय इतरधर्मोको गौण नहीं करके उनका निरास करने लगता है तब वह दुर्नय कहलाता है। तात्पर्य यह कि-प्रमाणमें अनेकधर्मवाली पूर्ण वस्तु विषय होती है, नयमें एक धर्म मुख्यरूपसे विषय होकर भी इतरधर्मों के प्रति उपेक्षा-गौणता रहती है, जबकि दुर्नय इतरधर्मोंका ऐकान्तिक निरास कर देता है । नैगम-नैगमाभास-यद्यपि अकलंकदेवने राजवार्तिकमें सर्वार्थसिद्धिके अनुसार नैगमनयका 'सङ्कल्पमात्रग्राही' यह ज्ञानाश्रितव्यवहारका समन्वय करनेवाला लक्षण किया है, पर लघीयस्त्रयमें वे नैगमनयको अर्थकी परिधिमें लाकर उसका यह लक्षण करते हैं-"गुण-गुणी या धर्म-धर्मीमें किसी एकको गौण तथा दुसरेको मुख्यतासे ग्रहण करनेवाला नैगमनय है। जैसे जीवके स्वरूपनिरूपणमें ज्ञानादिगुण गौण होते है तथा ज्ञानादिगुणोंके ही वर्णनमें जीव ।" गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियावान् तथा सामान्य-विशेषमें सर्वथा भेद मानना नैगमाभास है; क्योंकि-गुण-गुणीसे अपनी पृथक् सत्ता नहीं रखता और न गुणोंकी उपेक्षा करके गुणी अपना अस्तित्व रख सकता है । अतः इनमें कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही समुचित है। इसी तरह अवयव-अवयवी, क्रिया-क्रियावान्, तथा सामान्य-विशेषमें भी कथञ्चित्तादात्म्य ही सम्बन्ध है। यदि गुण आदि गुणी आदिसे बिलकुल भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ हों; तो उनमें नियत सम्बन्ध न कारण गुण-गण्यादिभाव नहीं बन सकेगा । अवयवी यदि अवयवोंसे सर्वथा पृथक है; तो उसकी अपने अवयवोंमें वत्ति-सम्बन्ध मानने में अनेकों दूषण आते हैं। यथा-अवयवी अपने प्रत्येक अवयवोंमें यदि पूर्णरूपसे तातो जितने अवयव है उतने ही स्वतन्त्र अवयवी सिद्ध होंगे। यदि एकदेश से रहेगा; तो जितने अवयव है अवयवीके उतने ही देश मानना होंगे, उन देशोंमें भी वह 'सर्वात्मना रहेगा या एक देशसे' इत्यादि विकल्प होनेसे अनवस्था दूषण आता है। सत्तासामान्यका अपनी व्यक्तियोंसे सर्वथा भेद माननेपर, सत्तासम्बन्धसे पहिले द्रव्य, गुण और कर्म व्यक्तियोंको सत माना जाय, या असत् ? यदि वे असत् है; तो उनमें सत्तासम्बन्ध नहीं हो सकता। सत्ता सर्वथा असत खरविषाणादिमें तो नहीं रहती। यदि वे सत् हैं; तो जिस प्रकार स्वरूपसत् द्रव्यादिमें सत्तासम्बन्ध मानते हो उसी तरह स्वरूपसत् सामान्यादिमें भी सत्तासम्बन्ध स्वीकार करना चाहिये। अथवा जिस प्रकार सामान्यादि स्वरूपसत् हैं उनमें किसी अन्य सत्ताके सम्बन्धकी आवश्यकता नहीं है. उसी तरह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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