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________________ ४/ विशिष्ट निबन्ध : ६३ ३. शब्दाश्रयो । कोई व्यक्ति ज्ञानको सीमामें ही अपने विचारोंको दौड़ाता है उसे अर्थकी स्थितिकी कोई परवाह ही नहीं रहती । ऐसे मनसूबा बांधनेवाले, हवाई किले बनानेवाले, शेखचिल्लीकी तरह विचारोंकी धुनमें ही मस्त रहनेवाले लोग अपने विचारोंको ज्ञान ही ज्ञान - कल्पनाक्षेत्रमें ही दौड़ाते रहते हैं। दूसरे प्रकारके लोग अर्थानुसारी विचार करते हैं । अर्थ में एक ओर एक, नित्य और व्यापीरूपसे चरम अभेदकी कल्पना की जा सकती है, तो दूसरी ओर क्षणिकत्व, परमाणुत्व और निरंशत्वकी दृष्टिसे अन्तिम भेदकी कल्पना। तीसरी कल्पना इन दोनों चरम कोटियोंके मध्यकी है। पहिली प्रकारको कोटिमें सर्वथा अभेदएकत्व स्वीकार करनेवाले औपनिषद अद्वैतवादी हैं, तो दूसरी ओर वस्तुको सूक्ष्मतम वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्यायके ऊपर दृष्टि रखनेवाले क्षणिक, निरंश परमाणुवादी बौद्ध हैं। तीसरी कोटिमें पदार्थको नानारूपसे व्यवहारमें लानेवाले नैयायिक, वैशेषिक आदि हैं। तीसरे प्रकारके व्यक्ति हैं भाषाशास्त्री, जिन्हें शब्दोंके बालकी खाल खींचने में ही मजा आता है। ये लोग एक अर्थकी हर एक हालतमें विभिन्न शब्दके प्रयोगको मानते हैं। इनका तात्पर्य है कि-भिन्नकालवाचक, भिन्न कारकोंमें निष्पन्न, भिन्न वचनवाले, भिन्नपर्यायवाचक, भिन्नक्रियावाचक शब्द एक अर्थको नहीं कह सकते। शब्दभेदसे अर्थ भेद होना ही चाहिए । उपयुक्त ज्ञान, अर्थ और शब्दका आश्रय लेकर होनेवाले विचारोंके समन्वयके लिए किए गए स्थूल मूल नियमोंको नय कहते हैं। इनमें ज्ञानाश्रित व्यवहारका संकल्प-विचारमात्रको ग्रहण करनेवाले नैगमनयमें समावेश हुआ । अर्थाश्रित अभेदव्यवहारका, जो 'आत्मवेदं सर्वम्, एकस्मिन् वा विज्ञाते सर्व विज्ञातम्" आदि उपनिषद्वाक्योंसे प्रकट होता है, संग्रहनयमें अन्तर्भाव किया गया। इसके आगे तथा एकपरमाणुकी वर्तमानकालीन एक अर्थपर्यायसे पहिले होनेवाले यावद मध्यवर्ती भेदोंका जिनमें न्याय वैशेषिकादि दर्शन शामिल है, व्यवहारनयमें समावेश किया। अर्थकी आखिरो देशको टि परमाणुरूपता तथा कालकोटि क्षणमात्रस्थायिताको ग्रहण करनेवाली बौद्धदृष्टि ऋजुसूत्रनयमें शामिल हुई । यहाँ तक अर्थको सामने रखकर भेदाभेद कल्पित हुए हैं। अब शब्दशास्त्रियोंका नम्बर आया। काल, कारक, संख्या तथा धातुके साथ लगनेवाले भिन्न-भिन्न उपसर्ग आदिकी दृष्टिसे प्रयुक्त होनेवाले शब्दोंके वाच्य अर्थ भिन्न-भिन्न हैं, इस कालकारकादिवाचक शब्दभेदसे अर्थभेद ग्रहण करनेवाली दृष्टिका शब्दनय में समावेश हुआ। एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एककालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं, इन पर्यायवाची शब्दोंसे भी अर्थभेद माननेवाली समभिरूढनयकी दृष्टि हैं। एवंभूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तक्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिए। इसकी दृष्टिसे सभी शब्द क्रियासे निष्पन्न हैं । गुणवाचक शक्ल शब्द भी शचिभवनरूप क्रियासे, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमनरूप क्रियासे, क्रियावाचक चलति शब्द चलने रूप क्रियासे, नामवाचक यदृच्छा शब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' इस क्रियासे निष्पन्न हुए है। इस तरह ज्ञान, अथं और शब्दरूपसे होनेवाले यावद्व्यवहारोंका समन्वय इन नयोंमें किया गया है। पर यह समन्वय एक खास शर्त पर हुआ है । वह शर्त यह है कि कोई भी दृष्टि अपनी प्रतिपक्षी दृष्टिका निराकरण नहीं कर सकेगी। इतना हो सकता है कि एक-अभेद अंशकी मुख्यता होनेपर दूसरी-भेददृष्टि गौण हो जाय । यही सापेक्षभाव नयका प्राण है। इस सापेक्षताके अभावमें नयदृष्टि सुनयरूप न रहकर दुर्नय बन जाती है । 'सापेक्षो नयः, निरपेक्षो दुर्नयः" यह स्पष्ट ही कहा है। इस संक्षिप्त कथनमें यदि सूक्ष्मतासे देखा जाय तो दो प्रकारकी दृष्टियाँ ही मुख्यरूपसे कार्य करती है-एक अभेददृष्टि और दूसरी भेददृष्टि । इन दृष्टियोंका आधार चाहे ज्ञान हो या अर्थ अथवा शब्द, पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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