SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ के समाधानके लिए 'मध्यमप्रतिपदा' का उपयोग किया। इस तत्त्वका उपयोग बुद्धने आखिर तक आचारके ही क्षेत्र तक सीमित रखा, उसे विचारके क्षेत्रमें दाखिल करनेका प्रयत्न नहीं हुआ। जब बोधिलाभ करनेके बाद संघरचनाका प्रश्न आया, शिष्यपरिवार दीक्षित होने लगा तथा उपदेशपरम्परा चाल हुई, तब भी बुद्धने किसी आत्मादि अतीन्द्रिय पदार्थका तात्त्विक विवेचन नहीं किया; किन्तु अपने द्वारा अनुभूत दुःख निवृत्तिके मार्गका ही उपदेश दिया। जब कोई शिष्य उनसे आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थ के विषयमें प्रश्न करता था तो वे स्पष्ट कह देते थे कि-"आवुस ! तुम इन आत्मा आदिको जानकर क्या करोगे? इनके जाननेसे कोई फायदा नहीं है। तुम्हें तो दुःखसे छूटना है, अतः दुःख, समुदय-दुःखके कारण, निरोध-दुःखनिवृत्ति और मार्ग-दुःखनिवृत्तिका उपाय इन चार आर्यसत्योंको जानना चाहिए तथा आचरण कर बोधिलाभ करना चाहिए।" उन्हें बुद्धिजीवी ब्राह्मण वर्गकी तरह बैठेठाले अनन्त कल्पनाजाल रचके दर्शनशास्त्र बनानेके बजाय अहिंसाकी आंशिक साधना ही श्रेयस्कर मालम होती थी। यही कारण है कि वे दर्शनशास्त्रीय आत्मादि पदार्थोके तत्त्वविवेचनके झगड़ेको निरुपयोगी समझकर उसमें नहीं पड़े । और उन्होंने अपनी नध्यम-प्रतिपदाका उपयोग उस समयके प्रचलितवादोंके समन्वयमें नहीं किया। उस समय आत्मादि पदार्थों के विषयमें अनेकों वाद प्रचलित थे। कोई उसे कूटस्थ नित्य मानता था तो कोई उसे भतविकारमात्र, कोई व्यापक कहता था तो कोई अणुरूप। पर बुद्ध इन सब वादोंके खंडन-मंडनसे कोई सरोकार ही न रखते थे, वे तो केवल अहिंसाकी साधनाकी ही रट लगाए हुए थे। पर जब कोई शिष्य अपने आचरण तथा संघके नियमोंमें मदुता लानेके लिए उनके सामने अपनी कठिनाइयाँ पेश करता था कि-'भन्ते ! आजकल वर्षाकाल है, एक संघाटक-चीवर रखनेसे तो वह पानीमें भोंग जाता है, और उससे शीतकी बाधा होती है। अतः दो चीवर रखनेकी अनुज्ञा दी जाय । हमें बाहिर स्नान करते हुए लोक-लाजका अनुभव होता है, अतः जन्ताघर (स्नानगृह) बनाने की अनुज्ञा दी जाय इत्यादि। तब बुद्धका मातहृदय अपने प्यारे बच्चोंकी कठिनाइयाँ सुनकर तुरन्त पसीज जाता था। वे यहाँ अपनी 'मध्यमप्रतिपदा' का उपयोग करते हैं और उनकी कठिनाइयाँ हल करनेके लिए उन्हें अनुज्ञा दे देते हैं । इस तरह हम देखते हैं कि-बुद्धकी मध्यमप्रतिपदा केवल आचारकी समाधानीके लिए उपयुक्त होती थी, वह आचारका व्यवहार्यसे व्यवहार्य मार्ग ढूंढ़ती थी। उसने विचारके अपरिमित क्षेत्रमें अपना कार्य बहुत कम किया। जब बुद्धने स्वयं 'मध्यमप्रतिपदा' विचारके क्षेत्रोंमें दाखिल नहीं किया तब उत्तरकालीन बौद्धाचार्योंसे तो इसकी आशा ही नहीं की जा सकती थी। बुद्धके उपदेशोंमें आए हुए क्षणिक, निरात्मक, विभ्रम, परमाणुपुञ्ज, विज्ञान, शून्य आदि एक-एक शब्दको लेकर उत्तरकालीन बौद्धाचार्योंने अनन्त कल्पनाजालसे क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, विभ्रमवाद, विज्ञानवान, शुन्यवाद आदि वादोंको जन्म देकर दर्शनक्षेत्रमें बड़ा भारी तूफान मचा दिया । यह तूफान मामली नहीं था, इससे वैदिक दर्शनोंकी चिरकालीन परम्परा काँप उठी थी। बद्धने तो मार-काम विजयके लिए, विषय-कषायोंको शान्तकर चित्त शोधनके लिए जगतको जलबुदबुदकी तरह क्षणिक-विनाशशील कहा था। निरात्मक शब्दका प्रयोग तो इसलिए था कि-'यह जगत् आत्मस्वरूपसे भिन्न है, नित्य कूटस्थ कोई आत्मा नहीं है जिसमें राग किया जाय, जगत्में आत्माका हितकारक कुछ नहीं है' आदि समझकर जगत्से विरक्ति हो। संसारको स्वप्नकी तरह विभ्रम एवं शून्य भी इसीलिए कहा था कि-उससे चित्तको हटाकर चित्तको विशुद्ध किया जाय । स्त्री आदि रागके साधन पदार्थोंको एक. नित्य, स्थल, अमक संस्थानवाली, वस्तु समझकर उसके मुख आदि अवयवोंका दर्शन-स्पर्शनकर रागद्वेषादिकी अमरबेल फूलती है । यदि उन्हें स्थूल अवयवी न समझकर परमाणुओंका पुंज ही समझा जायगा तो जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy