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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ५७ इस प्रयोगका निर्वाह किया जायगा; 'तो एक द्रव्यमें रूपादि बहत गुण है' यह प्रयोग असंभव हो जायगा; क्योंकि रूपादि बहुत गुणोंके आश्रयभूत द्रव्यमें तो एकत्वसंख्या है बहुत्वसंख्या नहीं । अतः गुणको स्वतन्त्र पदार्थ न मानकर द्रव्यका ही धर्म मानना चाहिए । धर्म अपने आश्रयभत धर्मीकी अपेक्षासे धर्म होनेपर भी अपने में रहनेवाले अन्य धर्मोकी अपेक्षासे धर्मी भी हो जाता है । जैसे रूपगुण आश्रयभूत घटकी अपेक्षासे यद्यपि धर्म है पर अपने में पाये जानेवाले एकत्व, प्रमेयत्व आदि धर्मोकी अपेक्षा धर्मी है। अतः जैन सिद्धान्तमें धर्मधर्मिभावके अनियत होनेके कारण 'एक गन्ध दो रूप' आदि प्रयोग बड़ी आसानीसे बच जाते हैं । इति । ३. नयनिरूपण जैनदष्टिका आधार और स्थान-भारतीय संस्कृति मुख्यतः दो भागों में बाँटी जा सकती है-एक वैदिक संस्कृति और दूसरी उसके मुकाबिलेमें खड़ी हुई श्रमणसंस्कृति । वैदिकसंस्कृतिके आधारभूत वेदको प्रमाण माननेवाले न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग, पूर्वमीमांसा तथा औपनिषद आदि दर्शन हैं। श्रमणसंस्कृतिके शिलाधार वेदको प्रमाणताका विरोध करनेवाले बौद्ध और जैनदर्शन हैं। वैदिकदर्शन तथा वैदिकसंस्कृतिके प्राणप्रतिष्ठानमें विचारोंकी प्रधानता है। श्रमणसंस्कृति एवं अवैदिक दर्शनोंकी उदभति आचारशोधनके प्रामुख्यसे हुई है। सभी दर्शनोंका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है, और गौण या मख्यरूपसे तत्त्वज्ञानको मोक्षका साधन भी सबने माना हो है। वैदिक संस्कृति तथा वैदिकदर्शनोंकी प्राणप्रतिष्ठा, संवर्द्धन एवं प्रौढ़ीकरणमें बुद्धिजीवी ब्राह्मणवर्गने पुश्तैनी प्रयत्न किया है जो आजतक न्यूनाधिक रूपमें चाल है। यही कारण है कि वैदिकदर्शनका कोषागार, उनकी सूक्ष्मता, तलस्पर्शिता, भावग्राहिता एवं पराकाष्ठाको प्राप्त कल्पनाओंका कोटिक्रम अपनी सानी कम रखता है। परम्परागत-बद्धिजीवित्वशाली ब्राह्मणवर्गने अपनी सारी शक्ति कल्पनाजालका विकास करके वेदप्रामाण्यके समर्थन में लगाई और वैदिक क्रियाकाण्डोंके द्वारा गर्भसे लेकर मरण पर्यन्तके जीवनके प्रत्येकक्षणको इतना ओतप्रोत कर दिया जिससे मुकाबिले में खड़ी होनेवाली बौद्ध और जैनसंस्कृति भी पीछे जाकर इन क्रियाकाण्डोंसे अंशतः पराभूत हो गई। श्रमणसंस्कृति वैदिक क्रियाकाण्ड, खासकर धर्मके नामपर होनेवाले अजामेध, अश्वमेध, नरमेध आदि हिंसाकाण्डका तात्त्विक एवं क्रियात्मक विरोध करनेके लिए उद्भत हुई, और उसने इस क्षेत्रमें पर्याप्त सफलता भी पाई । श्रमणसंस्कृतिका आधार पूर्णरूपसे अहिंसा रही है । अहिंसाका वास्तविक रूप तो सचमुच आचारगत ही है । अहिंसाका विचार तो वैदिकदर्शनोंने भी काफी किया है पर विशिष्ट अपवादोंके साथ । श्रमणसंस्कृति अहिंसाका सक्रिय रूप थी। इस अहिंसाकी साधना तथा पूर्णताके लिए ही इसमें तत्त्वज्ञानका उपयोग हुआ, जब कि वैदिक संस्कृतिमें तत्त्वज्ञान साध्यरूपमें रहा है। बौद्धदृष्टि-बुद्ध अहिंसाकी साधनाके लिए प्रारम्भमें छह वर्ष तक कठोर तपस्या करते हैं । जब उनका भावुक चित्त तपस्याकी उग्रतासे ऊब जाता है, तब वे विचार करते हैं कि-इतनी दीर्घतपस्याके बाद भी मझे बोधिलाभ क्यों नहीं हआ ? यहीं उनकी तीक्ष्णदृष्टि 'मध्यम प्रतिपदा' को पकड़ लेती है। वे निश्चय करते हैं कि-यदि एक ओर वैदिक हिंसा तथा विषय भोग आदिके द्वारा शरीरके पोषणका बोलबाला है तो इस ओर भी अव्यवहार्य अहिंसा तथा भीषण कायक्लेशके द्वारा होनेवाला शरीरका शोषण हृदयकी कोमलभावनाओंके स्रोतको ही बन्द किए देता है। अतः इन दोनोंके मध्यका ही मार्ग सर्वसाधारणको व्यवहार्य हो सकता है। आन्तरिक शुद्धिके लिए ही बाह्य उग्रतपस्याका उपयोग होना चाहिए, जिससे बाह्यतप ही हमारा साध्य न बन जाय । दयालु बुद्ध इस मध्यममार्ग द्वारा अपने आचारको मुदु बनाते हैं और वोधिलाभ कर जगत्में मृदु-अहिंसाका सन्देश फैलाते हैं। तात्पर्य यह कि-बुद्धने अपने आचारकी मृदुता ४-८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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