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४ / विशिष्ट निबन्ध: ५५ समान व्यवहार में कारण हो जाते हैं, उसी तरह परस्पर में अत्यन्त भिन्न मनुष्यव्यक्तियाँ भी अमनुष्यव्यावृत्तिके कारण 'मनुष्य मनुष्य' ऐसा समान व्यवहार कर सकेंगी। इसी तरह अतत्कार्य-कारणव्यावृत्तिसे अनुगत व्यवहार होता है । प्रकृत मनुष्यव्यक्तियाँ मनुष्य के कारणोंसे उत्पन्न हुई हैं तथा मनुष्यके कार्योंको करती हैं, अतः उनमें अमनुष्यकारणव्यावृत्ति तथा अमनुष्यकार्यव्यावृत्ति पाई जाती है, इसीसे उनमें किसी वस्तुभूत सामान्य के बिना भी सदृश व्यवहार हो जाता है ।
अकलंकदेव इसका खंडन करते हैं कि - सदृशपरिणामरूप विध्यात्मक सामान्यके माने बिना अपोहका नियम ही नहीं हो सकता। जब एक शाबलेय गौव्यक्ति दूसरी बाहुलेय गौव्यक्ति से उतनी ही भिन्न है। जितनी कि एक अश्वव्यक्तिसे, तब क्या कारण है कि अगोव्यावृत्ति शाबलेय और बाहुले यमें ही 'गोगो' ऐसा अनुगत व्यवहार करती है अश्व में नहीं ? अतः यह मानना होगा कि शाबलेय गौ बाहुलेय गौसे उतनी भिन्न नहीं है जितनी अश्वसे, अर्थात् शाबलेय और बाहुलेय में कोई ऐसा सादृश्य है जो अश्वमें नहीं पाया जाता। इसलिए सदृश परिणाम हो समान व्यवहारका नियामक हो सकता है । यह तो हम प्रत्यक्षसे ही देखते हैं कि कोई वस्तु किसीसे समान है तथा किसीसे विलक्षण | बुद्धि समानधर्मो की अपेक्षासे अनुगत व्यवहार कराती है, तथा विलक्षण धर्मोंको अपेक्षासे विसदृश व्यवहार । पर वह समानधर्म fastत्मक है निषेधात्मक नहीं । बौद्ध जब स्वयं अपरापरक्षणोंमें सादृश्यके कारण ही एकत्वका भान मानते हैं, शुक्तिका और चांदीमें सादृश्यके कारण ही भ्रमोत्पत्ति स्वीकार करते हैं; तब अनुगत व्यवहार के लिए अतद्व्यावृत्ति जैसी निषेधमुखी कल्पनासे क्या लाभ ? क्योंकि उसका निर्वाह भी आखिर सदृश - परिणाम के हो आ आ पड़ता है । बुद्धि में अभेदका प्रतिबिम्ब वस्तुगत सदृश धर्म के माने बिना यथार्थता नहीं पा सकता । अतः सदृशपरिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए । इस तरह अकलंकदेवने सदृशपरिणामरूप तिर्यक्सामान्य, एकद्रव्यरूप ऊर्ध्व तासामान्य, भिन्नद्रव्यों में विलक्षण व्यवहारका प्रयोजक विशेष और एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें भेद व्यवहार करानेवाले पर्याय इन द्रव्य, पर्याय, सामान्य और विशेष चार पदोंका उपादान करके प्रमाणके विषयभूत पदार्थ की सम्पूर्णताका प्रतिपादन किया है ।
भूतचैतन्यवाद निरास - चार्वाकका सिद्धान्त है कि- जीव कोई स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व नहीं है किन्तु पृथिवी, जल, अग्नि और वायुके अमुक प्रमाण में विलक्षण रासायनिक मिश्रणसे ही उन्हीं पृथिव्यादिमें चैतन्यशक्ति आविर्भूत हो जाती है। इसी ज्ञानशक्तिविशिष्ट भूत-शरीरमें जीव व्यवहार होता है। जिस प्रकार कोदों, महुआ आदिमें जलादिका मिश्रण होनेसे मदिरा तैयार हो जाती है उसी तरह जीव एक रासायनिक मिश्रण से बना हुआ संयुक्त द्रव्य है स्वतन्त्र अखण्ड मूलद्रव्य नहीं है । उस मिश्रण मेंसे अमुक तत्त्वों की कमी होनेपर जीवनीशक्ति नष्ट होनेपर मृत्यु जाती है। अतः जीव गर्भ से लेकर मृत्युपर्यन्त ही रहता है, परलोक तक जानेवाला नहीं । उसको शरीर के साथ ही साथ क्या शरीरके पहिले ही इतिश्री हो जाती है, शरीर तो मृत्यु के बाद भी पड़ा रहता है । "जलबुद्बुदवज्जीवाः, मदशक्तिवद्विज्ञानम् " -जल के बुद्बुदोंकी तरह जीव तथा महुआ आदिमें मादकशक्तिकी तरह ज्ञान उत्पन्न होता है— ये उनके मूल सिद्धान्तसूत्र हैं ।
अकलंकदेव इसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि यदि आत्मा जीव स्वतन्त्र मूल तत्त्व न हो तो संसार और मोक्ष किसे होगा ? शरीरावस्थाको प्राप्त पृथिव्यादि भूत तो इस लोकमें ही भस्मीभूत हो जाते हैं, परलोक तक कौन जायगा ? परलोकका अभाव तो नहीं किया जा सकता; क्योंकि आज भी बहुत लोग जातिस्मरण होने से अपने पूर्वभवकी तथ्यस्थितिका आँखोंदेखा हाल वर्णन करते हुए देखे जाते हैं । यक्ष, राक्षस, भूत पिशाचादि पर्यायोंमें पहुँचे हुए व्यक्ति अपनी वर्तमान तथा अतीतकालीन पूर्वपर्यायका समस्त
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