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________________ ५४ : डॉ. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति-ग्रन्थ चाहिए। इस तरह विरुद्ध धर्मोंका अध्यास होनेसे उसमें एकत्व नहीं रह सकता। अतः अवयवोंसे सर्वथा भिन्न अवयवी किसी भी तरह प्रत्यक्षका विषय नहीं हो सकता । इसलिये प्रतीति के अनुसार अवयवोंसे कथञ्चिद्भिन्न-अवयवरूप ही अवयवी मानना चाहिए। इस तरह गुण-पर्यायवाला, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक पदार्थ ही प्रमाणका विषय होता है। गुण सहभावी तथा पर्याएँ क्रमभावी होते हैं । जैसे भेदज्ञानसे वस्तुके उत्पाद और व्ययकी प्रतीति होती है उसी तरह अभेदज्ञानसे स्थिति भी प्रतिभासित होती ही है। जिस प्रकार सर्प अपनी सीधी, टेडी, उत्फण, विफण आदि अवस्थाओं में अनुस्यूत एक सत् है उसी तरह उत्पन्न और विलीन होनेवाली पर्यायोंमें द्रव्य अनुगत रहता है। अभिन्न प्रतिभास होनेसे वस्तु एक है। विरुद्ध धर्मोका अध्यास होनेसे अनेक है। वस्तु अमुक स्थूल अंशसे प्रत्यक्ष होनेपर भी अपनी सूक्ष्मपर्यायोंकी अपेक्षासे अप्रत्यक्ष रहती है। वस्तु के ध्रौव्य अंशके कारण ही 'स एवायम्' यह प्रत्यभिज्ञान होता है। उपादानोपादेयभाव भी ध्रौव्यांशके माननेपर ही बन सकता है। वस्तु जिस रूपसे उत्तरपर्यायमें अन्वित होगी उसी रूप से उसमें उपादानताका निश्चय होता है। यद्यपि शब्दादिका उपादान तथा आगे होनेवाला उपादेयभूत कार्य प्रत्यक्षगोचर नहीं है, तथापि उसकी मध्यक्षणवर्ती सत्ता ही उसके उपादानका तथा आगे होनेवाले उपादेयरूप कार्यका अनुमान कराती है। क्योंकि उपादानके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती तथा मध्यक्षण यदि आगे कोई कार्य न करेगा; तो वह अर्थक्रियाकारित्वके अभावमें अवस्तु ही हो जायगा । अतः द्रव्यपर्यायात्मक वस्तु ही प्रमाणका विषय हो सकती है। सामान्य-नैयायिक-वैशेषिक नित्य, एक, सर्वगत सामान्य मानते हैं, जो स्वतन्त्र पदार्थ होकर भी द्रव्य, गुण और कर्ममें समवायसम्बन्धसे रहता है। मीमांसक ऐसे ही सामान्यका व्यक्तिसे तादात्म्य मानते हैं। बौद्ध सामान्यको वस्तुभूत न मानकर उसे अतद्वयावृत्ति या अन्यापोहरूप स्वीकार करते हैं। जैन सदृश परिणमनको सामान्य कहते हैं। वे उसे अनेकानुगत न कहकर व्यक्तिस्वरूप मानते हैं। वह व्यक्तिकी तरह अनित्य तथा असर्वगत है। अकलंकदेवने सामान्यका स्वरूप वर्णन करते हुए इतर मतोंको आलोचना इस प्रकार की है-- नित्य-सामान्यनिरास-नित्य, एक, निरंश सामान्य यदि सर्वगत है; तो उसे प्रत्येक व्यक्तिमें खंडशः रहना होगा; क्योंकि एक हो वस्तु अनेक जगह युगपत् सर्वात्मना नहीं रह सकती। नित्य निरंश सामान्य जिस समय एक व्यक्तिमें प्रकट होता है; उसी समय उसे सर्वत्र व्यक्तिके अन्तरालमें भी प्रकट होना चाहिये । अन्यथा व्यक्त और अव्यक्तरूपसे स्वरूपभेद होनेपर अनित्यत्व एवं सांशत्वका प्रसंग है तरह सामान्य, विशेष और समवाय भिन्न सत्ताके समवायके बिना भी स्वतः सत् हैं उसी तरह द्रव्य, गुण और कर्म भी स्वतः सत् होकर 'सत् सत्' ऐसा अनुगत व्यवहार भी करा सकते है । अतः द्रव्यादिके स्वरूपसे अतिरिक्त सामान्य न मानकर सदृशपरिणामरूप ही सामान्य मानना चाहिए। __अन्यापोह निरास-बौद्ध सामान्यको अन्यापोहरूप मानते हैं। इनके मतसे कोई भी एक वस्तु अनेक आधारोंमें वृत्ति ही नहीं रख सकती, अतः अनेक आधारोंमें वत्ति रखनेवाला सामान्य असत है। सामान्य अनुगत व्यवहारके लिए माना जाता है। उनका कहना है कि हमलोगोंको परस्पर विभिन्न वस्तुओंके देखने के बाद जो बुद्धिमें अभेदका भान होता है, उसी बुद्धिमें प्रतिबिम्बित अभेदका नाम सामान्य है। यह बुद्धिप्रतिबिम्बित अभेद भी कोई विध्यात्मक धर्म नहीं है, किन्तु अतद्वयावृत्तिरूप है । जिन व्यक्तियोंमें अमनुष्यव्यावृत्ति पाई जाती है उनमें 'मनुष्य मनुष्य' व्यवहार किया जाता है। जैसे चक्षु, आलोक और रूप आदि पदार्थ परस्परमें अत्यन्त भिन्न होकर भी अरूपज्ञानजननव्यावृत्ति होनेके कारण रूपज्ञानजनकरूपसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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