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________________ ५२ : डॉ० महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य स्मृति ग्रन्थं उभयात्मक - नित्यानित्यात्मक वस्तुमें ही संभव है । क्षणिकमें अन्वित रूप नहीं है तथा नित्यमें उत्पाद और व्यय नहीं हैं । उभयात्मक वस्तुमें ही क्रम, यौगपद्य तथा अनेक शक्तिय संभव है । अर्थनिरूपण के प्रसंग में अकलंकने विभ्रमवाद, संवेदनाद्वैतवाद, परमाणुरूपअर्थवाद, अवयवसे भिन्न अवयवविवाद, अन्यापोहात्मक सामान्यवाद, नित्यैक सर्वगत- सामान्यवाद, प्रसंगसे भूतचैतन्यवाद आदिका समालोचन किया है । जिसका सार यह है--- विभ्रमवाद निरास - स्वप्नादि विभ्रमकी तरह समस्त ज्ञान विभ्रम हैं । जिस प्रकार स्वप्न में या जादू के खेल में अथवा मृगतृष्णा में अनेकों पदार्थ सत्यरूपसे प्रतिभासित तो होते हैं, पर उनकी वहाँ कोई वास्तविक सत्ता नहीं है, मात्र प्रतिभाम ही प्रतिभास होता है, उसी तरह घटपटादि ज्ञानोंके विषयभूत घटपटादि अर्थ भी अपनी पारमार्थिक सत्ता नहीं रखते । अनादिकालीन विकल्पवासना के विचित्र परिपाकसे ही सब विभ्रमरूप ही हैं । इनके मतसे किसी भी अर्थ और वह सब भ्रान्त है । इसका खंडन करते हुए अकलंकदेवने इस वाक्यका अर्थ विभ्रम रूप है, कि तब तो सभी अर्थोंकी सत्ता अविभ्रम-सत्य सिद्ध हो वस्तुएँ विभ्रमात्मक कहाँ हुईं ? कम-से-कम उक्त अनेकानेक अर्थं प्रतिभासित होते हैं । वस्तुतः वे ज्ञानकी सत्ता नहीं है, जितना ग्राह्य ग्राहकाकार है लिखा है कि- 'स्वप्नादि विभ्रमकी तरह समस्त ज्ञान विभ्रम रूप सत्य ? यदि उक्त वाक्यका अर्थ विभ्रम - मिथ्या है; जायगी। यदि उक्त वाक्यका अर्थ सत्य है; तो समस्त वाक्यका अर्थ तो स्वरूप सत् हुआ । इसी तरह अन्य वस्तुएँ भी स्वरूप सत् सिद्ध होंगी । संवेदनाद्वैतवाद निरसन - ज्ञानाद्वैतवादी मात्र ज्ञानकी वास्तविक सत्ता मानते हैं बाह्यार्थ की नहीं । ज्ञान ही अनादिकालीन विकल्पवासना के कारण अनेकाकार अर्थरूपसे प्रतिभासित होता है । जैसे इन्द्रजाल गन्धर्वनगर आदि में अविद्यमान भी आकार प्रतिभासित होते हैं उसी तरह ज्ञानसे भिन्न घटादि पदार्थ अपनी प्रातिभासिकी सत्ता रखते हैं पारमार्थिकी नहीं । इसी अभिन्नज्ञान में प्रमाण- प्रमेय आदि भेद कल्पित होते हैं, अतः यह ग्राह्य ग्राहकरूपसे प्रतिभासित होता है । इसकी समालोचना करते हुए अकलंकदेव लिखते हैं कि-तथोक्त अद्वयज्ञान स्वतः प्रतिभासित होता है, या परतः ? यदि स्वतः प्रतिभासित हो; तब तो विवाद ही नहीं होना चाहिए। आपकी तरह ब्रह्मवादी भी अपने ब्रह्मका भी स्वतः प्रतिभास ही तो कहते हैं । परतः प्रतिभास तो परके बिना नहीं हो सकता । परको स्वीकार करनेपर द्वैतप्रसंग होगा । इन्द्रजालदृष्ट पदार्थं तथा बाह्यसत् पदार्थों में इतना मोटा भेद है कि उसमें स्त्रियाँ तथा ढोर चरानेवाले ग्वाले आदि मूढ़जन भी भ्रान्त नहीं हो सकते । वे बाह्यसत्य पदार्थोंको प्राप्तकर अपनी आकांक्षाएँ शान्त कर सन्तोषका अनुभव करते हैं जब कि इन्द्रजालदृष्ट पदार्थों से कोई अर्थ कया या सन्तोषानुभव नहीं होता। वे तो प्रतिभासकालमें हो असत् मालूम होते हैं । अद्वय ज्ञानवादियोंको प्रतिभासकी सामग्री - प्रतिपत्ता, प्रमाण, विचार आदि तो मानना ही चाहिए, अन्यथा प्रतिभास कैसे हो सकेगा ? अद्वयज्ञानमें अर्थ - अनर्थ, तत्त्व अतत्त्व आदिको व्यवस्था न होनेसे तग्राही ज्ञानों में प्रमाणता या अप्रमाता भी निश्चित नहीं की जा सकेगी । पर्वतादि बाह्य पदार्थोंको विकल्पवासनाप्रसूत कहने से उनमें मूर्तत्व, स्थूलत्व, सप्रतिघत्व आदि धर्म कैसे संभव हो सकते हैं ? यदि विषादि पदार्थ बाह्यसत् नहीं हैं केवल ज्ञानरूप ही हैं; तब उनके खानेसे मृत्यु आदि कैसे हो जाते हैं ? विषके ज्ञानमात्रसे तो मृत्यु नहीं देखी जाती । प्रतिपाद्यरूप आत्मान्तरकी सत्ता माने बिना शास्त्रोपदेश आदिका क्या उपयोग होगा ? जब परप्रतिपत्तिके उपायभूत वचन ही नहीं है; तब परप्रतिपादन कैसे संभव है ? इसी तरह ग्राह्य ग्राहकभाव, बाध्य - बाधकभाव आदि अद्वैत बाधक हैं । अद्वयसिद्धिके लिए साध्यसाधनभाव तो आपको मानना ही चाहिए; अन्यथा सहोप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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