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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध: ५१ जोन बिलकुल अपरिवर्तनशील है और न इतना विलक्षण परिवर्तन करनेवाला जिससे अचेतन भी अपनी अचेतनत्वकी सीमाको लाँघकर चेतन बन जाए, या दूसरे अचेतन द्रव्यरूप हो जाय । अथवा एक चेतन दूसरे सजातीय चेतनरूप या विजातीय अचेतनरूप हो जाय । उसकी सीधे शब्दों में यही परिभाषा हो सकती है कि किसी एक द्रव्यके प्रतिक्षण में परिणमन करनेपर भी जिसके कारण उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यरूपसे परिणमन नहीं होता, उस स्वरूपास्तित्वका ही नाम द्रव्य, ध्रौव्य या गुण है । बौद्धके द्वारा माने गए सन्तानका भी यही कार्य है कि वह नियत पूर्वक्षणका नियत उत्तरक्षणके साथ ही कार्य-कारणभाव बनाता है क्षणान्तरसे नहीं । तात्पर्य यह कि इस सन्तान के कारण एक चेतनक्षण अपनी उत्तर चेतनक्षणपर्यायका ही कारण होगा, विजातीय अचेतनक्षणका और सजातीय चेतनान्तरक्षणका नहीं । इस तरह तात्त्विक दृष्टिसे द्रव्य या सन्तान के कार्य या उपयोग में कोई अन्तर नहीं है । हाँ, अन्तर है तो केवल उसके शाब्दिक स्वरूपनिरूपणमें | बौद्ध उस सन्तानको काल्पनिक कहते हैं, जब कि जैन उस द्रव्यांशको पर्याय क्षणकी तरह वास्तविक कहते हैं । सदा कूटस्थ अविकारी नित्य अर्थ में तो जैन भी उसे वस्तु नहीं कहते । सन्तानको समझाने के लिए बौद्धोंने यह दृष्टान्त दिया है कि - जैसे दस आदमी एक लाइनमें खड़े हैं पर उनमें पंक्ति जैसी कोई एक अनुस्यूत वस्तु नहीं है, उसी तरह क्रमिक पर्यायोंमें कूटस्थ नित्य कोई द्रव्यांश नहीं है । पर इस दृष्टान्तकी स्थितिसे द्रव्यकी स्थिति कुछ विलक्षण प्रकार की है । यद्यपि यहाँ दश भिन्नसत्ताक पुरुषोंमें पंक्ति नामकी कोई स्थायी वस्तु नहीं है फिर भी पंक्तिका व्यवहार हो जाता है । पर एक द्रव्यकी क्रमिक पर्याएँ दूसरे द्रव्यकी पर्यायोंसे किसी स्वरूपास्तित्वरूप तात्त्विक अंशके माने बिना असंक्रान्त नहीं रह सकतीं । यहाँ एक पुरुष चाहे तो इस पक्ति से निकलकर दूसरी पंक्ति में शामिल हो सकता है । पर कोई भी पर्याय चाहनेपर भी दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्यायसे संक्रान्त नहीं हो सकती और अपने द्रव्य में भी अपना क्रम छोड़कर न आगे जा सकती है और न पीछे । अतः द्रव्यांशमात्र पंक्ति एवं सेना आदिकी तरह बुद्धिकल्पित नहीं है किन्तु क्षणकी तरह सत्य है । इस तरह द्रव्यपर्यायात्मक — उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक वस्तु अर्थक्रियाकारी है, सर्वथा क्षणिक तथा सर्वथा नित्य वस्तु अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकती । द्ध सत्का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व करते हैं । अर्थक्रिया दो प्रकारसे होती है - १. क्रमसे, २. यौगपद्यरूप से । उनका कहना है कि नित्य वस्तु न क्रमसे ही अर्थक्रिया कर सकती है और न युगपत् । अतः अर्थ - क्रियाकारित्व रूप सत्त्वके अभाव में वह असत् ही सिद्ध होती है । नित्य वस्तु सदा एकरूप रहती है, अतः जब वह समर्थ होनेसे सभी कार्योंको युगपत् उत्पन्न कर देगी, तब कार्यों में भेद नहीं हो सकेगा; क्योंकि कार्यों में भेद कारणके भेदसे होता है । जब कारण एक एवं अपरिवर्तनशील है तब कार्यभेदका वहाँ अवसर ही नहीं है । यदि वह युगपत् अर्थक्रिया करे; तो सभी कार्य एक ही क्षण में उत्पन्न हो जायेंगे, तब दूसरे क्षण में नित्य अकिञ्चित्कर ठहरेगा । इस तरह क्रमयौगपद्यसे अर्थक्रियाका विरोध होनेसे नित्य असत् है । अकलंकदेव कहते हैं कि यदि नित्यमें अर्थक्रिया नहीं बनती तो सर्वथा क्षणिक में भी तो उसके बनेकी गुंजाइश नहीं है। क्षणिकवस्तु एकक्षण तक हो ठहरती है, अतः जो जिस देश तथा जिस कालमें है वह उसी देश तथा कालमें नष्ट हो जाती है । इसलिये जब वह देशान्तर या कालान्तर तक किसी भी रूप में नहीं जाती तब देशकृत या कालकृत क्रम उसमें नहीं आ सकता, अतः उसमें क्रमसे अर्थक्रिया नहीं बनेगी । निरंश होनेसे उसमें एक साथ अनेकस्वभाव तो रहेंगे हो नहीं; अतः युगपत् भी अनेक कार्यं कैसे हो सकते हैं ? एक स्वभावसे तो एक 'कार्य 'सकेगा । कारण में नाना शक्तियाँ माने बिना कार्यों में नानात्व नहीं आ सकता । इस तरह सर्वथा क्षणिक तथा नित्य दोनों वस्तुओं में अर्थक्रिया नहीं हो सकती । अर्थक्रिया तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
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