SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ४१ ३- अनैकान्तिक — विपक्ष में भी पाया जानेवाला । जैसे सर्वज्ञाभाव सिद्ध करनेके लिए प्रयुक्त वक्तृत्वादिहेतु । यह निश्चितानैकान्तिक, सन्दिग्धनैकान्तिक आदिके भेदसे अनेक प्रकारका होता है । ४- अकिञ्चित्कर - सिद्ध साध्य में प्रयुक्त हेतु । अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने त्रिलक्षण हेतु हैं उन सबको भी अकिञ्चित्कर समझना चाहिए । दिग्नागात्रार्यने विरुद्धाव्यभिचारी नामका भी एक हेत्वाभास माना है । परस्पर विरोधी दो हेतुओंका एक धर्मो में प्रयोग होनेपर प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी हो जाता है। यह संशयहेतु होनेसे हेत्वाभास है । धर्मकीर्ति इसे हेत्वाभास नहीं माना है । वे लिखते हैं कि प्रमाण सिद्ध रूप्यवाले हेतुके प्रयोग होनेपर विरोधी हेतुको अवसर ही नहीं मिल सकता । अतः इसकी आगमाश्रितहेतुके विषय में प्रवृत्ति मानकर आचार्य - के वचनकी संगति लगा लेनी चाहिए; क्योंकि शास्त्र अतीन्द्रियार्थं विषय में प्रवृत्ति करता है । शास्त्रकार एक ही वस्तुको परस्पर विरोधी रूपसे कहते हैं, अतः आगमाश्रित हेतुओं में ही यह संभव हो सकता है । अकलंकदेवने इस हेत्वाभासका विरुद्ध हेत्वाभास में अन्तर्भाव किया है । जो हेतु विरुद्धका अव्यभिचारी- विपक्ष में भी रहने वाला होगा वह विरुद्ध हेत्वाभासकी ही सीमा में आयगा । अकृत हेतुबिन्दुविवरण में एक पडुलक्षण हेतु माननेवाले मतका कथन है। पक्षधर्मत्व, सपक्ष सत्त्व, विपक्षाद्व्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व, असत्प्रतिपक्षत्व और ज्ञातत्व ये छह लक्षण हैं । इनमें ज्ञातत्व नामके रूपका निर्देश होनेसे इस वादी के मतसे 'अज्ञात' नामका भी हेत्वाभास फलित होता है । अकलंकदेवने इस 'अज्ञात' हेत्वाभासका अकिञ्चित्कर हेत्वाभासमें अंतर्भाव किया है । नैयायिकोक्त पाँच हेत्वाभासों में कालात्ययापदिष्टका अकिञ्चित्कर हेत्वाभासमें तथा प्रकरणसमका जो दिग्नागके विरुद्धाव्यभिचारी जैसा है, विरुद्ध हेत्वाभास में अन्तर्भाव समझना चाहिए। इस तरह अकलंकदेवने सामान्य रूपसे एक हेत्वाभास कहकर भी विशेषरूपसे असिद्ध, विरुद्ध अनैकान्तिक और अकिञ्चित्कर इन चार हेत्वाभासोंका कथन किया है। अकलंकदेवका अभिप्राय अकिञ्चित्करको स्वतन्त्र हेत्वाभास मानने के विषय में सुदृढ़ नहीं मालूम होता । क्योंकि वे लिखते हैं कि - सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है। वही विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध के भेदसे अनेक प्रकारका है । ये विरुद्धादि किञ्चित्करके विस्तार हैं । फिर लिखते हैं कि- अन्यथानुपपत्तिरहित जितने त्रिलक्षण हैं उन्हें अकिञ्चित्कर कहना चाहिए। इससे मालूम होता है कि वे सामान्य हेत्वाभासोंकी अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा रखते थे । इसके स्वतन्त्र हेत्वाभास होनेपर उनका भार नहीं था । यही कारण है कि आ० माणिक्यनन्दिने अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके लक्षण और भेद कर चुकनेपर भी लिखा है कि इस अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका विचार हेत्वाभासके लक्षणकालमें ही करना चाहिए । शास्त्रार्थ के समय तो इसका कार्य पक्षदोषसे ही किया जा सकता है। आचार्य विद्यानन्दने भी सामान्यसे एक हेत्वाभास कहकर असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिकको उसीका रूपान्तर माना है । उनने भी अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके ऊपर भार नहीं दिया । वादिदेवसूरि आदि उतरकालीन आचार्याने असिद्धादि तीन ही हेत्वाभास गिनाए हैं । साध्य - आ० दिग्नागने पक्षके लक्षण में ईप्सित तथा प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध ये दो विशेषण दिए हैं। धर्मकीर्ति ईप्सितकी जगह इष्ट तथा प्रत्यक्षाद्यविरुद्ध के स्थान में प्रत्यक्षाद्य निराकृत शब्दका प्रयोग करते हैं । अकलंकदेव ने अपने साध्यके लक्षण में शक्य ( अबाधित ) अभिप्रेत ( इष्ट ) और अप्रसिद्ध इन तीन विशेषणों का प्रयोग किया है । असिद्ध विशेषण तो 'साध्य' शब्दके अर्थसे ही फलित होता है । साध्यका अर्थ है— सिद्ध करने योग्य, अर्थात् असिद्ध । शक्य और अभिप्रेत विशेषण बौद्धाचार्योंके द्वारा किए गए साध्यके लक्षणसे आए हैं । ४-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210011
Book TitleAkalank Granthtraya aur uske Karta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkalankadev
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy